छत्रपति शिवाजी
भारतीय इतिहास के महापुरुषों में शिवाजी का नाम प्रमुख है। वे जीवन भर अपने समकालीन शासकों के अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करते रहे।
शिवाजी का जन्म 4 मार्च सन् 1627 ई० को महाराष्ट्र के शिवनेर के किले में हुआ था। इनके पिता का नाम शाहजी और माता का नाम जीजाबाई था। शाहजी पहले अहमदनगर की सेना में सैनिक थे। वहाँ रहकर शाहजी ने बड़ी उन्नति की और वे प्रमुख सेनापति बन गये। कुछ समय बाद शाहजी ने बीजापुर के सुल्तान के यहाँ नौकरी कर ली। जब शिवाजी लगभग दस वर्ष के हुए तब उनके पिता शाहजी ने अपना दूसरा विवाह कर लिया। अब शिवाजी अपनी माता के साथ दादाजी कोणदेव के संरक्षण में पूना में रहने लगे।
जीजाबाई धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। उन्होंने बड़ी कुशलता से शिवाजी की शिक्षा-दीक्षा का प्रबन किया। दादाजी कोणदेव की देख-रेख में शिवाजी को सैनिक शिक्षा मिली और वे घुड़सवारी, अस्त्रों-शस्त्र के प्रयोग तथा अन्य सैनिक कार्यों में शीघ्र ही निपुण हो गये। वे पढ़ना, लिखना तो अधिक नहीं सीख सके परन्तु अपनी माता से रामायण, महाभारत तथा पुराणों की कहानियों सुनकर उन्होंने हिन्दू धर्म और भारती संस्कृति का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। माता ने शिवाजी के मन में देश-प्रेम की भावना जाग्रत की।
शिवाजी को वीरों की साहसिक कहानियाँ सुनाती थीं। बचपन से ही शिवाजी के निडर व्यक्तित्व का निर्माण आरम्भ हो गया था।
शिवाजी सभी धर्मों के संतों के प्रवचन बड़ी श्रद्धा के साथ सुनते थे। सन्त रामदास को उन्होंने अपन गुरु बनाया। गुरु पर उनका पूरा विश्वास था और राजनीतिक समस्याओं के समाधान में भी वे अपने गुरु की राय लिया करते थे। दादाजी कोणदेव से शिवाजी ने शासन सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त कर लिया था पर जब शिवाजी बीस वर्ष के थे तभी उनके दादा की मृत्यु हो गयी। अब शिवाजी को अपना मार्ग स्वयं बनाना था। भावल प्रदेश के साहसी नवयुवकों की सहायता से शिवाजी ने आस-पास के किलों पर अधिकार करना आरम्भ कर दिया बीजापुर के सुल्तान से उनका संघर्ष हुआ। शिवाजी ने अनेक किलों को जीत लिया और रायगढ़ को अपनी राजधानी बनाया।
बीजापुर का सुल्तान शिवाजी को नीचा दिखाना चाहता था। उसने अपने कुशल सेनापति जफजल के को पूरी तैयारी के साथ शिवाजी को पराजित करने के लिए भेजा। अफजल खो जानता था कि युदध भूमि में के सामने उसकी दाल नहीं गलेगी इसलिए कूटनीति से उसने शिवाजी को अपने जाल में फंसाना चाहा उसने दूत के द्वारा शिवाजी के पास संधि प्रस्ताव भेजा। उन्हें दूत की बातों से अफजल खाँ के कपटपूर्ण व्यवहार का आभास मिल गया था। अतः वे सतर्क होकर अफजल खाँ से मिलने गये। उन्होंने साहसपूर्वक स्थिति किया और हाथ में पहने हुए बधनख से अफजल खाँ का वध कर दिया।
शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति से मुगल बादशाह औरंगजेब को चिन्ता हुई। उसने अपने मामा शाइस्ता खां को दक्षिण का सूबेदार बनाकर भेजा और उसने शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति को नष्ट करने को कहा।
शाइस्ता खों पूना के एक महल में ठहरा था। रात के समय शिवाजी ने अपने सैनिकों के साथ शाइस्ता खाँ पर आक्रमण कर दिया। लेकिन वे अंधेरे में कमरे से भाग निकला। इस पराजय से मुगल साम्राज्य की प्रतिष्ठा को बड़ी क्षति पहुंची अब शिवाजी का दमन करने के लिए औरंगजेब ने आमेर के राजा जयसिंह को भेजा। जयसिंह नीतिशाल, दूरदर्शी योग्य और साहसी सेनानायक था। इन दोनों के मध्य दो महीने तक घमासान युद्ध अन्त में शिवाजी संधि करने के लिए विवश हो गये और उनको जयसिंह की सभी शर्तं स्वीकार करनी जब जयसिंह के साथ शिवाजी आगरा पहुंचे तब नगर के बाहर उनका स्वागत नहीं किया गया। मुगल दरवार में भी उनको यथोचित सम्मान नहीं मिला। स्वाभिमानी शिवाजी यह अपमान सहन न कर सके, वे मुगल सम्राट का अवहेलना करके दरबार से चले आये। औरंगजेब ने उनके महल के चारों ओर पहरा बैठाकर उनको कैद कर लिया। वे शिवाजी का वध करने की योजना बना रहा था। इसी समय शिवाजी ने बीमार हो जाने की घोषणा कर दी। वे ब्राह्मणों और साधु सन्तों को मिठाइयों की टोकरियाँ भिजवाने लगे। बॅहगी में रखी एक आर की टोकरी में स्वय बैठकर वे आगरा नगर से बाहर निकल गये और कुछ समय बाद अपनी राजधानी रायगढ़ पहुंच गये। शिवाजी के भाग निकलने का औरंगजेब को जीवन-भर पछतावा रहा।
शिवाजी को अपनी सैन्य शक्ति का पुन गठन करने के लिए समय की आवश्यकता थी। अत: उन्होंने मुगलों से सन्धि करने में हित समझा। दक्षिण के सूबदार राजा जयसिंह की मृत्यु हो चुकी थी और उनके स्थान पर शाहजादा मुअज्जम दक्षिण का सूबदार था। उसकी सिफारिश पर औरंगजेब ने सन्धि स्वीकार कर ली और शिवजी की राजा की उपाधि को भी मान्यता दे दी। अब शिवाजी अपने राज्य की शासन-व्यवस्था को सुदृढ़ करन लग गये।
शिवाजी बहु प्रतिभावान और सजग राजनीतिज्ञ थे। उन्हें अपने सैनिकों की क्षमता और देश की भौगोलिक स्थिति का पूर्ण ज्ञान था। इसलिए उन्होंने दुर्गा के निर्माण और छापामार युद्ध में मुगल सेनाओं की सहायता करके उनका अपना मित्र भी बनाय रखा। उनकी यह नीति उनके युग के लिए नयी थी।
यद्यपि उनका जीवन एक तूफानी दौर के बीच से गुजर रहा था पर ये अपने राज्य की शासन व्यवस्था के लिए समय निकाल लेते थे।
शिवाजी की ओर से औरगजेब का मन साफ नहीं था इसलिए सब्धि के दो वर्ष बाद ही फिर संघर्ष आरम्भ हो गया। शिवाजी ने अपने वे सब किल किरात लिया जिनको जयसिंह ने उनसे छीन लिया था।
उनकी सेना फिर मुगल राज्य में छापा मारने लगी। उन्होंने कोड़ाना के किले पर आक्रमण करके अधिकार प्राप्त कर लिया और उसका नाम सिंहगढ़ रख दिया। उनका अन्य किल्ला पर अधिकार कर लेने के बाद शिवाजी ने सूरत पर छापा मारा और बहुत सी सम्पत्ति प्राप्त की। इस प्रकार प्राप्त सम्पत्ति का कुछ भाग तो वे उदारता से अपने सैनिकों में बॉट दते थे और शेष सेना के संगठन तथा प्रजा के हित के कार्यों में खर्च करते थे ।
अब शिवाजी महाराष्ट्र के विस्तृत क्षेत्र के स्वतन्त्र शासक बन गए और सन् 1674 ई० में बड़ी धूमधाम से उनका राज्याभिषेक हुआ। उसी समय उन्होंने छत्रपति की पदवी धारण की। इस अवसर पर उन्होंने बड़ी उदारता से दीन दुःखियों को दान दिया।
राज्याभिषेक के बाद भी शिवाजी ने अपना विजय अभियान जारी रखा। बीजापुर और कर्नाटक ।
आक्रमण करके समुद्रतट के सारे प्रदेशों को अपने अधिकार में कर लिया। शिवाजी ने ही सबसे सुव्यवस्थि ढंग पहले का संगठन किया। शिवाजी महान दूरदर्शी थे और वे यह जानते थे कि भविष्य में देश को नौसेना की भी आवश्यकता होगी।
शिवाजी सभी धर्मों का समान आदर करते थे। राज्य के पदों के वितरण में भी कोई भेद-भाव नहीं रखते थे। उनके राज्य में स्त्रियों का बड़ा सम्मान किया जाता था। युद्ध में यदि शत्रु पक्ष की कोई महिला अधिकार में आ जाती तो वे उसका सम्मान करते थे और उसे उसके पति अथवा माता-पिता के पास पहुँचा देते थे। उनका राज्य धर्मनिरपेक्ष राज्य था। उनके राज्य में हर एक व्यक्ति को धार्मिक स्वतन्त्रता, अत्याचार के दमन को वे अपना कर्त्तव्य समझते थे, इसीलिए सेना संगठन को विशेष महत्व देते थे। सैनिक की सुख-सुविधा का वे विशेष ध्यान रखते थे। शिवाजी के राज्य में अपराधी को दण्ड अवश्य मिलता था जब उनका पुत्र शम्भाजी अमर्यादित व्यवहार करने लगा तो उसे भी शिवाजी के आदेश से बन्दी बना लिया था।
शिवाजी ने एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना का महान संकल्प लिया था और इसी लक्ष्य की प्राप्ति लिए वे आजीवन संघर्ष करते रहे। सच्चे अर्थों में शिवाजी एक महान राष्ट्रनिर्माता थे। उन्हीं के पदचिह्नों चलकर पेशवाओं ने भारत में मराठा शक्ति और प्रभाव का विस्तार कर शिवाजी के स्वप्न को साकार किया।
No comments:
Post a Comment