छत्रसाल
छत्रसाल देश के उन इने-गिने महापुरुषों में हैं जिन्होंने अपने बल, बुद्धि तथा परिश्रम से बहुत साधारण स्थिति में अपने को बहुत बड़ा बना लिया।
छत्रसाल का जीवन काल
छत्रसाल के पिता का नाम चम्पतराय था। वे अत्यंत वीर थे। उनका जीवन सदा रणक्षेत्र में ही बीता। उनकी रानी भी सदा उनके साथ लड़ाई के मैदान में जाती थीं। उन दिनों रानियाँ बहुधा अपने पति के साथ रण में जाती थीं और पति को उत्साहित करती थीं। जब छत्रसाल अपनी माता के गर्भ में थे तब भी उनकी माता चम्पतराय के साथ रणक्षेत्र में ही थीं। चारों तरफ तलवारों की खनखनाहट और गोलियों की वर्षा हो रही थी। ऐसे ही वातावरण में छत्रसाल का जन्म एक पहाड़ी गाँव में सन् 1648 ई० में हुआ था।
उनके पिता चम्पतराय ने सोचा कि इस प्रकार के जीवन में छत्रसाल को अपने पास रखना ठीक नहीं है। रानी छत्रसाल को लेकर नैहर चली गयीं। चार साल तक छत्रसाल वहीं रहे। उसके बाद पिता के पास आए।
बचपन से ही छत्रसाल बड़े साहसी और निर्भीक थे। इनके खिलौनों में असली तलवार भी थी। इनके खेल भी रण के खेल होते थे। प्रायः सभी लोग कहते थे कि वे अपने जीवन में पराक्रमी और साहसी पुरुष होंगे। इनके गुणों के कारण ही इनका नाम छत्रसाल रखा गया। इसके अतिरिक्त आचार-व्यवहार के गुण भी इनमें बालपन से ही थे।
इन्हें बाल्यकाल में चित्र बनाने का बहुत शौक था। ये हाथी, घोड़े, तोप और बन्दूक-सवार सैनिक का चित्र बनाया करते थे। रामायण तथा महाभारत की कथा जब होती तो बड़े मन से सुनते थे। सातवें वर्ष से इनकी शिक्षा नियमित ढंग से आरम्भ हुई उस समय वे अपने मामा के यहाँ रहते थे। पुस्तकों की शिक्षा के साथ-साथ सैनिक-शिक्षा भी इन्हें दी जाती थी। दस वर्ष की अवस्था में ही छत्रसाल अस्त्र-शस्त्र को
कुशलता से चलाना सीख गये थे। हिन्दी कविता तथा अनेक धार्मिक पुस्तकें इन्होंने पढ़ लीं थीं। केशवदास कृत 'राम चन्द्रिका' इन्हें बहुत प्रिय थी।
छत्रसाल की अवस्था लगभग सोलह वर्ष की थी, जब इनके माता-पिता की मृत्यु हो गयी। छत्रसाल उस समय बहुत दुःखी हुए किन्तु उन्होंने धैर्यपूर्वक अपने आपको सँभाला और भविष्य के सम्बन्ध में सोचने लगे। छत्रसाल की अवस्था इस समय विचित्र थी। सारी जागीर छिन चुकी थी। इनके पास न सेना थी न पैसे थे।
इन्होंने भविष्य का चित्र अपने मन में बना लिया और अपने काका के यहाँ चले गये। वहाँ कुछ दिन रहने के पश्चात् इन्होंने अपनी योजना अपने काका को बतायी। युद्ध की बात सुनकर इनके काका बहुत डरे। उन्होंने मुगलों की महती शक्ति का विवरण बताया और कहा कि युद्ध करना बेकार है। काका की बात इन्हें अच्छी न लगी और ये बड़े भाई के पास चले आए। बड़े भाई और ये एक ही मत के थे। दोनों ने मिलकर बुन्देलखण्ड का राज्य पुनः स्थापित करने की योजना बनायी।
पहला काम तो सेना एकत्र करना था किन्तु इसके लिए धन की आवश्यकता थी। इनकी माता के गहरे एक गाँव में रखे थे। दोनों भाइयों ने गहने बेचकर छोटी सी सेना तैयार की। इसके बाद से छत्रसाल का जीवन युद्ध करते ही बीता। ये बहुत चतुर थे। इनके लड़ने का ढंग इतना योग्यतापूर्ण होता था कि कदाचित ही कोई युद्ध ऐसा हुआ हो जिसमें छत्रसाल की हार हुई हो।
जब ये देखते थे कि बैरी की सेना मेरी सेना से अधिक है तो बड़ी चतुराई से अपनी सेना हटा लेते थे। बैरी की सेना की संख्या में इन्हें कभी घबराहट नहीं हुई। जहाँ-जहाँ लड़ते थे वहाँ जो उनकी अधीनता स्वीकार कर लेता था उसे तो छोड़ देते थे, जो अधीनता नहीं स्वीकार करता था, उसकी सारी सम्पत्ति लेकर उसका बहुत अधिक भाग सैनिकों में बाँट देते थे।
छत्रसाल की शक्ति औरंगजेब की सैनिक शक्ति की तुलना में कुछ भी न थी। फिर भी छत्रसाल को वे हरा न सका, इसके तीन कारण थे। पहली बात तो यह थी कि छत्रसाल के लड़ने का ढंग बहुत कौशलपूर्ण ये और इनके भाई सेना का संचालन करते थे। ये पहाड़ी प्रदेशों में लड़ते थे। इन स्थानों की इन्हें विशेष रूप से जानकारी थी। जब अवसर मिलता था वे भाग जाते थे और औरंगजेब की सेना लाख सिर मारने पर
भी इन्हें हानि नहीं पहुंचा सकती थी। तीसरी बात यह थी कि इनके सैनिक बड़े साहसी और वीर थे। इनकी विजय का हाल जो बुन्देला सुनता, इनकी सहायता करने के लिए तैयार हो जाता और सदा सहायता देता।
इन्हीं सब कारणों से यह बात हुई जो कभी सम्भव न थी। और वह यह थी कि बड़े-बड़े सेनापति औरंगजेब की ओर से आये, अनेक स्थानों पर वे छत्रसाल से लड़े, परन्तु कहीं किसी युद्ध में विजय न पा सके। छत्रसाल सदा विजयी रहे।
इनका का राज्य धीरे-धीरे बढ़ता गया और सारा बुन्देलखण्ड इनके राज्य में आ गया। इनके राज्य का प्रबन्ध भी बहुत उत्तम और प्रजा को सुखी बनाने वाला था। कोई व्यक्ति यदि स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार करता तो उसे कठोर दण्ड देते थे। सारा राज-काज उन्हीं की आज्ञा से होता था। महाराज का नियम था कि प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह कितना ही छोटा हो, उनसे मिल सकता था जिनकी विनती और बात ये सुनते रहे होंगे। उनके दरबार में अनेक मन्त्री भी थे जिनसे वे परामर्श किया करते थे।
एक बार ये छत्रपति महाराज शिवाजी के पास भी गये। वे शिवाजी से अवस्था में छोटे थे। शिवाजी इनसे बहुत प्रेम से मिले और उन्होंने इनका बहुत सम्मान किया। उन्होंने उपदेश दिया कि वीरता से लड़ो, लालच कभी मत करना और अधर्म कभी मत करना। किसी धर्म या जाति से द्वेष न करना। शिवाजी की ये बातें उन्होंने सदा याद रखीं।
शिवाजी के बाद उन्होंने मराठों से सहायता माँगी। सिंहासन पर अब कोई बलशाली राजा नहीं रह गया था और मुगल राज के वंशजों में ही झगड़ा हो रहा था। छत्रसाल को भी इस समय अपने राज्य कीरक्षा के लिए लड़ना पड़ा। छत्रसाल बूढ़े हो चले थे, वीरता और साहस ने इनका साथ न छोड़ा था, फिर भी इस समय इन्हें सहायता की आवश्यकता आ पड़ी। इसलिए उन्होंने पेशवा बाजीराव से सहायता माँगी और उन्होंने सहायता दी।
महाराज छत्रसाल कविता और साहित्य के प्रेमी थे। उनके दरबार में सदा अच्छे-अच्छे कवि रहते थे और सदा उन्हें पुरस्कार मिलता रहता। कवियों का यह कितना सम्मान करते थे, इसका पता एक घटना से लग सकता है। भूषण कविराज शिवाजी के यहाँ रहते थे। वे एक बार छत्रसाल के यहाँ आये। जब वे इनके महल के निकट पहुँचे, छत्रसाल बाहर आये और आगे जाकर भूषण की पालकी में अपना कन्धा भी लगा दिया। ज्यों ही भूषण को पता लगा वे तुरन्त ही कूद पड़े। बोले, महाराज, 'यह आपने क्या किया।'
छत्रसाल ने उत्तर दिया, "आप ऐसे महान कवि का सम्मान शिवाजी महाराज के यहाँ होता है। मैं उनकी समता कैसे कर सकता हूँ। मैं इसी प्रकार आपका सम्मान कर सका।'' शिवाजी की मृत्यु के बाद भूषण छत्रसाल के यहाँ अनेक बार आइनके दरबार में जो कवि रहते थे इनमें लाल कवि भी एक कवि थे जिन्होंने छत्रसाल के सम्बन्ध में एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है- छत्रप्रकाश । छत्रसाल स्वयं कविता करते थे और उनकी अनेक वीरता से भरी रचनाएँ तथा कविताएँ मिलती हैं। विख्यात छतरपुर नगर महाराज छत्रसाल का ही बसाया हुआ है।
यह बात विख्यात है कि शिवाजी के गुरु रामदास थे, जिन्होंने उन्हें बहुत अच्छे-अच्छे उपदेश दिये। शिवाजी को शिवाजी भी उन्होंने बनाया। इसी प्रकार महाराज छत्रसाल के भी गुरु थे। इनका नाम प्राणनाथ था।
बुन्देलखण्ड को शक्तिशाली राज्य बनाकर भी छत्रसाल को शान्ति नये। भूषण ने छत्रसाल की प्रशंसा में भी कविताएँ लिखी हैं।
छत्रसाल की मृत्यु
मिली। दूसरी शक्तियाँ सदा ईर्ष्या की दृष्टि से इनका राज्य देखती रहीं। इसलिए राज्य की रक्षा के लिए इन्हें जीवन भर लड़ना पड़ा। उनकी मृत्यु सन् 1731 ई० में हुई।
No comments:
Post a Comment