गुरु गोविंद सिंह की जीवनी, गुरु गोविंद की वाणी - जीवन परिचय biography

Thursday, 13 May 2021

गुरु गोविंद सिंह की जीवनी, गुरु गोविंद की वाणी

        गुरु गोविन्द सिंह

समय-समय पर इस धरती पर कुछ ऐसी विभूतियाँ जन्म लेती रही हैं, जिनके विचारों से हम सभी का जीवन प्रकाशित होता है। ऐसी ही महान विभूतियों में गुरु गोविन्द सिंह की गणना की जाती है।


गुरु गोविन्द सिंह का जन्म उस समय हुआ जब भारत में मुगलों का शासन था। मुगल शासकों की कार्यनीति एवं समाज के प्रति अपनाए गए व्यवहार से जनता में असंतोष बढ़ रहा था। गुरु तेग बहादुर के पुत्र तथा उत्तराधिकारी गुरु गोविन्द सिंह ने सिख-आन्दोलन को नई दिशा दी। जनता पर हो रहे क्रूर अत्याचार को देखकर गोविन्द सिंह ने बाल्यकाल में ही अनुभव किया की आतंक तथा भ्रष्ट शासन से निबटने के लिए समाज को संगठित होना चाहिए।


उनकी लड़ाई प्रमुख रूप से तत्कालीन शासन से थी न कि इस्लाम धर्म से। इसका स्पष्ट प्रमाण इस बात से मिलता है कि इन्होंने अपनी सेवा में कई पठानों को लगा रखा था और इस लड़ाई में उन्हें पीर बुधू शाह का सहयोग प्राप्त था। मुगलों के विरुद्ध लड़ाई में सईद बेग और मेमू खाँ भी उनकी तरफ से लड़े थे। नबी खाँ और गनी खाँ ने उन्हें मुगल सेना से बचाया था। वे पंजाब में भी वैसी ही जागृति पैदा करना चाहते थे जैसी शिवाजी ने महाराष्ट्र में की थी।


गोविन्द सिंह को लगभग १० वर्ष की अवस्था में गुरु की गद्दी मिली। सिख धर्म का आरम्भ बाबा नानक ने किया था। बाबा नानक के बाद सिख धर्म मानने वालों की संख्या में वृद्धि होने लगी। अब सिखों ने अपनी आत्मरक्षा हेतु अपने आपको संगठित करना प्रारम्भ कर दिया। दसवें गुरु गोविन्द सिंह के समय सिख लोग भली – भाँति संगठित हो गए। वे सैनिकों की भाँति घुड़सवारी करते, तलवार चलाते और लड़ाई लड़ते थे।

इतना ही नहीं कुछ राज-काज भी होने लगा। अब गुरु लोग धार्मिक गुरु के साथ-साथ राजा के समान रहने लगे। इनके शिष्य इन्हें भेंट देते। इस कार्य के लिए इन्होंने स्थान-स्थान पर कुछ व्यक्ति नियुक्त कर दिए जिन्हें मसन्द कहते थे। गुरु हरगोविन्द ने जो गुरुगोविन्द सिंह के पितामह थे, सिखों को पूरा सैनिक बना दिया था। वे स्वयं सैनिक वेश में दरबार किया करते थे। उनके शिष्य तथा दरबारी उन्हें सच्चे बादशाह कहते थे।


जिस समय गोविन्द सिंह गुरु की गद्दी पर बैठे, पंजाब में सिखों की संख्या बहुत बढ़ गयी थी।।अपने गुरु से अत्यधिक प्रेम करते थे। गुरु गोविन्द सिंह शिष्यों के आग्रह पर अम्बाला के निकट आनन्दपुर नामक स्थान पर आ गये। यह उनके पिता गुरु तेग बहादुर सिंह की राजधानी थी।


गुरु गोविन्द सिंह आनन्दपुर में लगभग २० वर्षों तक रहे और यहाँ उन्होंने हिन्दू धर्मग्रन्थों का बड़ गम्भीरता से अध्ययन किया। इसी बीच उन्होंने एक पुस्तक का संकलन और सम्पादन किया जिसे "दशम ग्रन्थ" कहते हैं। वे स्वयं एक अच्छे कवि और विचारक थे। गुरु नानक की भाँति वे भी एक ईश्वर को माना वाले थे। अन्य धर्मावलम्बियों को भी ये सन्मान देते थे और किसी अन्य धर्म का इन्होंने कभी विरोध नही किया। इनके द्वारा रचित ''चंडी चरित्र" और "चंडी का वार'' नामक पुस्तकें वीर रस के सुन्दर काव्य हैं। इन पुस्तकों के माध्यम से इन्होंने अपने शिष्यों में अदम्य साहस और वीरता का संचार किया। ये अच्छे आशुकवि भी थे। उपदेश देते-देते वे कविता कहने लगते थे। इससे सुनने वालों पर गहरा प्रभाव पड़ता था।

इन्होंने एक पुस्तक 'विचित्र नाटक' भी लिखी है। इसके द्वारा उन्होंने लोगों में उत्साह भरने का कार्य किया।


पुस्तक विचित्र नाटक में उन्होंने लिखा है, "तुम हमारे पुत्र के समान हो, नया पंथ चलाओ। लोगो से कहो कि सत्य की राह पर चले और नासमझी से काम न करें।

सन् 1666 ई० में बैसाखी वाले दिन गुरु गोविन्द सिंह जी ने 'खालसा पंथ' अथवा सिख धर्म की स्थापना की।

बैसाखी वाले दिन आनन्दपुर साहिब में लोग एकत्र हुए। श्री केश गढ़ साहिब में एक दीवान लगाय गया, जहाँ हजारों मनुष्यों की भीड़ इकट्ठी थी। गुरु गोविन्द सिंह आए। उन्होंने कहा “आप सब लोग मेरे भक्त हैं। आज खालसा के लिए बलिदान की आवश्यकता है और सबसे बड़ा बलिदान मनुष्यों का ही हो सकता है। आप लोगों में जो बलिदान देने के लिए तैयार हों वे सामने आएँ।"  

सब लोगों में एकदम सन्नाद छा गया। किसी का साहस बलि चढ़ने का नहीं होता था। थोड़ी देर बाद एक व्यक्ति तैयार हुआ। वह साम आया । उसे गुरु गोविन्द सिंह अन्दर ले गए। तम्बू के अन्दर तलवार के वार की तथा धड़ गिरने की आवाज आयी। इसके पश्चात वे हाथ में खड्ग लिए फिर बाहर आए। वे बोले एक बलि और चाहिए। इस प्रकार पहले से जल्दी दूसरा आदमी तैयार हो गया। उसको भी वे अन्दर ले गये और बलि दे दी। बाहर आकर तीसर बलि की माँग की। इस बार शीघ्र ही दूसरा आदमी वह अन्दर ले गए। इसके बाद गुरु गोविन्द सिंह के साथ वे पाँचों सुसज्जित वस्त्रों के साथ बाहर आये। लोगों को बड़ा अचम्भा हुआ। उन्होंने समझा कि वे गुरु आशीर्वाद से ही जीवित हो उठे। वे पाँचो व्यक्ति पंच प्यारे कहलाये क्योंकि वे मृत्यु का डर छोड़कर अपने बलि देने को तैयार हो गये।

होंने पाँच वस्तुओं को ग्रहण करना आवश्यक बताया। वे वस्तुएँ हैं - 

(१) केश, 

(२) कड़ा, 

(३) कंघा,

(४) कच्छ,

(५) कृपाण। 

ये 'पाँच ककार' कहे जाते हैं। प्रत्येक सिख इन पाँच वस्तुओं को अपने साथ रखत है। गोविन्द सिंह ने यह भी अनुभव किया कि जाति-पाँति से देश को बड़ी हानि हो रही है और संगठन यह बाधक है। इसलिए सिख धर्म में उन्होंने जाति-पाँति का भेद-भाव नहीं रखा। उन्होंने अपने शिस्य को आज्ञा दी कि 'कट्टरता छोड़ो और अपने गुरु की आज्ञा को ही सबसे बढ़कर मानो।' 

उन्होंने अपने शिष्य से जाति-सूचक शब्द को छोड़कर प्रत्येक सिख के नाम में सिंह जोड़ना आवश्यक बना दिया, जिससे वे अपनेको सिंह के समान अनुभव करें। इन सबका परिणाम यह हुआ कि सिख संगठित सैनिक बन गए। पारस पड़ोस के राजा उनसे ईर्ष्या करने लगे। आनन्दपुर के पड़ोसी राजाओं से उनका युद्ध भी हुआ, जिसमें ये विजयी रहे किन्तु आगे और भी विपत्ति खड़ी हो गयी। 

सिखों की वीरता की बात जब औरंगजेब के कानों में पड़ी तो वह इस बात से चिन्तित और भयभीत हो गया कि उसकी राजधानी दिल्ली के निकट एक नई शक्ति उभर रही है। उस समय औरंगजेब दक्षिण में था। उसने अपने सैनिकों को वहीं से आज्ञा दी कि गोविन्द सिंह पर आक्रमण किया जाय । आनन्दपुर घिर गया। बड़ी कठिनाई से गुरु गोविन्द सिंह वहाँ से कुछ साथियों के साथ बच निकले। इसके बाद लगभग छ:-सात वर्षों तक वे औरंगजेब से युद्ध करते रहे। इन्हीं लड़ाइयों में गुरु गोविन्द सिंह के दो पुत्र मारे गये और दो को सरहिन्द के सूबेदार ने दीवार में चुनवादिया।


इन सब कठिनाइयों और दुःखों में भी गुरु गोविन्द सिंह ने अपना धैर्य और साहस नहीं खोया। गुरु गोविन्द सिंह के शौर्य से भयभीत औरंगजेब ने उनकी गिरफ्तारी का आदेश दे दिया। किन्तु इसी बीच औरंगजेब की मृत्यु हो गई और उसके लड़कों में राज्य के लिए लड़ाई छिड़ गई। गुरु ने उसके एक लड़के बहादुरशाह का साथ दिया जो बाद में औरंगजेब का उत्तराधिकारी बना। बहादुरशाह से मिलने के लिए वे दक्षिण जा रहे थे। मार्ग में किसी शत्रु द्वारा घायल कर दिए जाने से 42 वर्ष की अवस्था में गुरु गोविन्द सिंह की मृत्यु हो गई।


अपने छोटे से जीवन काल में उन्होंने जो भी कार्य किए वे सचमुच सराहनीय है। सिख सम्प्रदाय में गुरु परम्परा की समाप्ति का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। अपनी मृत्यु से कुछ समय पूर्व एक समारोह में गोविन्द सिंह जी ने पाँच पैसे व एक नागोविन्दरियल 'गुरु ग्रन्थ साहिब' के आगे रखकर माथा टेका और 'गुरु ग्रन्थ 'साहिब' को गुरु पद की पदवी प्रदान की। इसके पश्चात् उन्होंने कहा कि आज के बाद कोई देहधारी व्यक्ति गुरू नहीं होगा, बल्कि 'गुरु ग्रन्थ साहिब जी' ही आज के बाद सिखों के गुरु होंगे सब "सब सिखन को हुकुम है गुरु मान्यो ग्रन्थ।"

गुरु सिंह सिखों के महान गुरु थे। उन्होंने भेद-भाव मिटाकर खालसा पंथ को संगठित किया देशवासियों में नयी स्फूर्ति एवं प्रेरणा दी। निःसंदेह वे हमारे देश के अमूल्य रत्न थे, जिन्हें हमारा देश नहीं भूल सकता।


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