Kabir das ka jivan Parichay
ऐसा माना किया जाता है कि महात्मा कबीरदास जी का जन्म काशी में 1398 ई.(वि.सं. 1444) में हुआ था। इनके जन्म स्थान के सम्बन्ध में तीन मत है मगहर, काशी और आजमगढ़। कबीरदास जी ने स्वयं को अपने काव्य में काशी का जुलाहा कहा है। अतः इनका जन्म-स्थान काशी ही निश्चित होता है।
जनश्रुति के अनुसार कबीर का जन्म सन्त रामानन्द के आशीर्वाद से एक विधवा ब्राहाणी के गर्भ से हुआ था। मां ने जन्म देते ही समाज और लोकलाज के भय से इन्हें लहरतारा नामक तालाब के किनारे छोड़ दिया था। नीरू और नीमा नामक सन्तानहीन दम्पत्ति को यह बालक तालाब के किनारे पड़ा मिला। उन्होंने ही इनका पालन-पोषण किया। इस प्रकार ये बचपन से ही हिन्दू और मुसलमान-दोनों के संस्कारों से प्रभावित हुए। इनका विवाह लोई नामक स्त्री से हुआ, जिससे उनके कमान नाम का पुत्र और कमाली नाम की पुत्री हुई।
Kabir das ka jivan Parichay in short
संक्षिप्त जीवन परिचय:
नाम | कबीरदास |
जन्म | सन् 1398 ई० |
जन्म स्थान | काशी (वाराणसी) |
जीवन अवधि | 120 वर्ष |
माता-पिता | नीरू और नीमा |
गुरु | रामानंद |
पत्नी | लोई |
पुत्र पुत्री | पुत्र कमल पुत्री कमली |
कबीरदास के गुरु:
कबीरदासजी के गुरु रामानन्द थे। कहते हैं, रामानन्द ने इनको एक जुलाहा पुत्र होने के नाते शिष्य रूप में स्वीकार करने से इन्कार कर दिया था। तब ये एक दिन प्रातः गंगा के घाट की सीढ़ियों पर जाकर लेट गए। रामानन्द प्रतिदिन गंगा स्नान के लिए प्रातः ही जाया करते थे। अंधेरा होने के कारण रामानन्द इन्हें नहीं देख सके और उनका पैर इनके सीने पर पड़ गया। ये राम नाम का जाप करते हुए पीछे की तरफ लौट पड़े। कबीरदासजी ने उनके पैर पकड़ लिए और बोले अब मुझे राम नाम का गुरु-मन्त्र मिल गया। इनकी भक्ति देखकर रामानन्द ने इन्हें शिष्य रूप में स्वीकार कर लिया।
कबीर दास जी का जीवन काल:
कबीरदास जी बचपन में मगहर में रहे थे और बाद में काशी में जाकर बस गए थे। जीवन के अन्तिम दिनों में ये पुनः मगहर चले गए थे। उस समय यह धारणा प्रचलित थी कि काशी में मरने से व्यक्ति को स्वर्ग मिलता है तथा मगहर में मरने से नरक। समाज में प्रचलित इसी अन्धविश्वास का खण्डन करने के लिए कबीरदासजी अन्तिम समय में मगहर चले गए थे। वहीं उन्होंने 1518 ई. (वि. सं. 1575) में अपने प्राण त्यागे और 120 वर्ष की लम्बी उम्र प्राप्त की।
साधारण परिवार में जन्म लेने के कारण कबीरदास को अध्ययन का अवसर नहीं मिल सका। उन्होंने स्वयं के लिए स्वीकार किया है कि- "मसि कागद छुयो नहीं कलम गही नहिं हाथ" इस प्रकार किसी भी प्रकार की विद्यालयी शिक्षा न मिलने पर भी उनको सत्संग और व्यापक परिभ्रमण के कारण पर्याप्त ज्ञान प्राप्त हो गया था और वे मात्र प्रेम का ढाई आखर पढ़कर पण्डित हो गए थे।
यह भी कहा जाता है कि कवोर ने सूफी सन्त शेख तकी से दीक्षा ली थी। कबीर ने स्वयं अपनी रचनाओं को लिपिबद्ध नहीं किया था, क्योंकि उन्हें अक्षर या लिपि का ज्ञान नहीं था। उनके शिष्यों ने उनकी रचनाओं का संकलन किया।
कबीरदास जी के साहित्य को पढ़ने से ज्ञात होता है कि उनकी बह दृढ़ आस्था थी कि जीवन कर्म के अनुसार गति पाता है। कबीरदासजी में काव्य सृजन की सहज प्रतिभा बी, अतः उनकी अटपटी वाणी से जो कुछ भी निकला वह काव्य बन गया।
कबीर का सम्पूर्ण काव्य जीवन की गहन अनुभूतियों से ओत-प्रोत है। उनके काव्य का सर्वाधिक महत्व सामाजिक-धार्मिक एकता और भक्ति का सन्देश देने में है। अपने मन की अनुभूतियों को उन्होंने सहज और आम बोलचाल की भाषा में दोहे छन्द का कनेवर पहनाकर व्यक्त किया है।
कबीरदास के शिष्य-
उन्होंने जो कुछ कहा वह अत्यधिक आश्चर्य उत्पन्न करने वाला है। विश्वास नहीं होता कि 'कलम गही नहिं हाथ' वाले कबीर इतने बड़े चिन्तक और महान् काव्य-कर्ता होंगे। रचनाएं—कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे फिर भी जो कुछ गा उठते थे उनके शिष्य उसे लिख लिया करते थे।
सर्वप्रथम सन्न 1521 में उनके शिष्य धर्मदास ने उनकी रचनाओं का संग्रह 'बीजक' नाम से किया था। कबीर का एक अन्य ग्रन्थ 'कबीर ग्रन्थावली' के नाम से काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने प्रकाशित किया है।
कबीरदास की रचनाएं:
कबीर की रचनाएं तीन भागों में विमल १. साखी-साखियां दोहा छन्द में लिखी गयी हैं। शिक्षा या सीख से परिपूर्ण होने के कारण इन्हें साखी कहते हैं। २. सबद-वे पदों के रूप में संकलित हैं। इनमें विषय की गम्भीरता एवं संगीतात्मकता है। ३. रमेनी–दोहे और चौपाई छन्दों में इनकी रचना की गयी है। इनमें कबीर ने अपने दार्शनिक और रहस्यवादी विचान को अभिव्यक्ति दी है। कबीर ग्रन्थावली इस ग्रन्थ में डॉ. श्यामसुन्दरदास ने कबीर की सम्पूर्ण रचनाओं का संकलन किया है।
कबीरदास जी की भाषा:
कबीरदासजी की भाषा एक सन्त की भाषा है जो स्वयं में निश्छलता को लिए हुए है। उसमें कहीं भी बनावटीपन क भाव समाहित नहीं है। उनकी भाषा में अरबी, फारसी, भोजपुरी, राजस्थानी, अवधी, पंजाबी, बुन्देलखण्डी, ब्रज एवं खड़ीबोली आदि विविध बोलियों और उपबोलियों तथा भाषाओं के शब्द मिल जाते हैं। इसीलिए उनको भाषा 'पंचमेल खिचड़ी' या 'सधुक्कड़ी' कहलाती है। सृजन की आवश्यकता के अनुसार वे शब्दों को तोड़-मरोड़कर प्रयोग करने में भी नहीं चूकते थे।
Kabir das ka jivan parichay (कबीरदास की शैली)
कबीरदास की शैली उपदेशात्मक है, जिसकी भाषा सहज एवं सरल है। अतः उनकी शैली उपदेशात्मक होते हुए भी क्लिष्ट शब्दों से बोझिल नहीं है। उन्होंने दोहे, चौपाई एवं पदों की रचना शैली अपनाकर इसका सफलतापूर्वक प्रयोग किया आपकी शैली मुक्तक काव्य शैली है, जिसमें उपदेशात्मकता सर्वत्र विद्यमान है। ज्ञानमार्गी कबीरदासजी का हिन्दी साहित्य में मूर्धन्य स्थान है उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में सत्य और पावनता पर बल दिया। समाज सुधार, राष्ट्रीय और धार्मिक एकता उनके उपदेशों का काव्यमय स्वरूप था। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही कहा है- “कबीर साधना के क्षेत्र में युग- गुरु थे और साहित्य के क्षेत्र में भविष्य द्रष्टा। उनके समकालीन एवं परवर्ती सभी सन्त-कवियों ने उनकी बाणी का अनुसरण किया।"
Nice bhai best post
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