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Saturday, 29 May 2021

आदि गुरु शंकराचार्य की जीवनी | (अनमोल वचन )

May 29, 2021 0
आदि गुरु शंकराचार्य की जीवनी | (अनमोल वचन )

आदि गुरु शंकराचार्य: Aadi Guru Sankrachrya ki Jivani:


In this post... शंकराचार्य का जन्म, आदि शंकराचार्य के उपदेश, शंकराचार्य की मृत्यु कैसे हुई, आदि शंकराचार्य के स्लोक

"हे मानव ! तू स्वयं को पहचान, स्वयं को
पहचानने के बाद तू ईश्वर को पहचान जायेगा।"

                            ...आदि गुरु शंकराचार्य


शंकराचार्य का बचपन का नाम शंकर था।शंकराचार्य का जन्म दक्षिण भारत के केरल प्रदेश में पूर्णा नदी के तट पर स्थित कालडी ग्राम में आज से लगभग बारह सौ वर्ष पहले हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम आर्यम्बा था। इनके पिता बड़े विदवान थे तथा इनके पितामह भी वेद-शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनका परिवार अपने पांडित्य के लिये विख्यात था।शंकराचार्य के मन में बचपन से ही संन्यासी बनने की प्रबल इच्छा थी।आदि गुरु अर्थात शंकराचार्य जी ऐसे महान सन्यासी थे जिन्होंने माँ की अनुमति के बाद सन्यास ग्रहण किया।

Aadi Guru Sankrachrya

शंकराचार्य बारे में ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी "आपका पुत्र महान विद्वान, यशस्वी तथा भाग्यशाली होगा इसका यश पूरे विश्व में फैलेगा और इसका नाम अनन्त काल तक अमर रहेगा।" पिता शिवगुरु यह सुनकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने पुत्र का नाम शंकर रखा। ये अपने माँ-बाप की इकलौती सन्तान थे। शंकर तीन ही वर्ष के थे कि इनके पिता का देहान्त हो गया। पिता की मृत्यु के बाद माँ आर्यम्बा शंकर को घर पर ही पढ़ाती रही। पाँचवे वर्ष उपनयन संस्कार हो जाने पर माँ ने इन्हें आगे अध्ययन के लिए गुरु के पास भेज दिया।

शंकर कुशाग्र एवं अलौकिक बुद्धि के बालक थे। इनकी स्मरण शक्ति अदभुत थी। जो बात एक बार पढ़ लेते या सुन लेते उन्हें याद हो जाती थी। इनके गुरु भी इनकी प्रखर मेधा को देखकर आश्चर्यचकित थे। शकर कुछ ही दिनों में वेदशास्त्रों एवं अन्य धर्मग्रन्थों में पारंगत हो गये। शीघ्र ही इनकी गणना प्रथम कोटि के विद्वानों में होने लगी।

शंकर गुरुकुल में सहपाठियों के साथ भिक्षा माँगने जाते थे। वे एक बार कहीं भिक्षा माँगने गये। अत्यन्त विपन्नता के कारण गृहस्वामिनी भिक्षा न दे सकी अतः रोने लगी। शकर के हृदय पर इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा।
विद्या अध्ययन समाप्त कर शंकर घर वापस लौटे। घर पर दे विद्यार्थियों को पढ़ाते तथा माँ की सेवा करते थे। इनका ज्ञान और यश चारों तरफ फैलने लगा।

केरल के राजा ने इन्हें अपने दरबार का राजपुरोहित बनाना चाहा विन्तु इन्होंने बड़ी विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। राजा स्वयं शंकर से मिलने आये।  उन्होंने एक हजार अशर्फियाँ इन्हें भेंट की और इन्हें तीन स्वरचित नाटक दिखाये। शंकर ने नाटकों की प्रशंसा की किन्तु अशर्फियाँ लेना अस्वीकार कर दिया। शंकर के त्याग एवं गुणग्राहिता के कारण राजा इनके भक्त बन गए।
अपनी माँ से अनुमति लेकर शंकर ने संन्यास ग्रहण कर लिया। माँ ने अनुमति देते समय शंकर से वचन लिया कि वे उनका अन्तिम संस्कार अपने हाथों से ही करेंगे। यह जानते हुए भी कि संन्यासी यह कार्य नहीं कर सकता उन्होंने माँ को वचन दे दिया। माँ से आज्ञा लेकर शंकर नर्मदा तट पर तप में लीन संन्यासी गोविन्दनाथ के पास पहुंचे। शंकर जिस समय वहाँ पहुँचे गोविन्दनाथ एक गुफा में समाधि लगाये बैठे थे । समाधि टूटने पर शंकर ने उन्हें प्रणाम किया और बोले –'मुझे संन्यास की दीक्षा तथा आत्मविद्या का उपदेश दीजिए

गोविन्दनाय ने इनका परिचय पूछा तथा इनकी बातचीत से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने सन्यास की दीक्षा दी और इनका नाम शंकराचार्य रखा। वहाँ कुछ दिन अध्ययन करने के बाद वे गुरु की अनुमति लेकर सत्य की खोज के लिए निकल पड़े। गुरु ने उन्हें पहले काशी जाने का सुझाव दिया।
शंकराचार्य काशी में एक दिन गंगा स्नान के लिए जा रहे थे। मार्ग में एक चांडाल मिला। शकराचार्य में उसे मार्ग से हट जाने के लिए कहा। उस चांडाल ने विनर भाव से पूछा- 'महाराज! आप चांडाल किसे कहते हैं ? इस शरीर को या आत्मा को ? यदि शरीर को तो वह नश्वर है और जैसा अन्न-जल का आपका शरीर वैसा ही मेरा भी। यदि शरीर के भीतर की आत्मा को, तो वह सबको एक है, क्योंकि ब्रह्म  एक है। शंकराचार्य को उसकी बातों से सत्य का ज्ञान हुआ और उन्होंने उसे धन्यवाद दिया।

आदि शंकराचार्य के श्लोक

पशूनां पतिं पापनाशं परेशं। गजेंद्रस्य कृतिं वसानं वरेण्यं।
जटाजूटमध्ये स्फुदगाड्डग्वारीम। महादेवमेकं स्मरामि स्मरामि ।                ...वेदसार सिवस्तवः

काशी में शकराचार्य का वहाँ के प्रकाण्ड विद्वान मंडन मिश्च से शास्त्रार्थ हुआ। यह शास्त्रार्थ कई दिन तक चला। मंडन मिश्र तथा उनकी पत्नी भारती का बारी-बारी से इनसे शास्त्रार्थ हुआ। पहले शंकराचार्य भारती से हार गए किन्तु पुनः शास्त्रार्थ होने पर वे जीते। मंडन मिश्र तथा उनकी पत्नी शंकराचार्य के शिष्य बन गये।

महान कर्मकाण्डी कुमारिल भट्ट से शास्त्रार्थ करने के लिए वे प्रयागधाम गए। भट्ट बड़े-बडे विद्वानों को परास्त करने वाले दिग्विजयी विद्वान थे।
संन्यासी शकराचार्य विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते रहे। वे श्रृंगेरी में थे तभी माता की बीमारी का समाचार मिला। वह तुरन्त माँ के पास पहुँचे। वह इन्हें देखकर बड़ी प्रसन्न हुई। कहते हैं कि इन्होंने माँ को भगवान विष्णु का दर्शन कराया और लोगों के विरोध करने पर भी माँ का दाह संस्कार किया।

शंकराचार्य के मठ

शकराचार्य ने धर्म की स्थापना के लिए सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया। उन्होंने भग्न मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया तथा नये मन्दिरों की स्थापना की। लोगों को राष्ट्रीयता के एक सूत्र में पिरोने के लिएउन्होंने भारत के चारों कोनों पर चार धामों (मठों) की स्थापना की।
इनके नाम हैं-
बदरीनाथद्वारिकापुरी, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम् 
ये चारों धाम आज भी विद्यमान हैं।

शंकराचार्य का सिद्धांत

"ब्रह्म सत्य है तथा जगत मिथ्या है" इसी मत का इन्होंने प्रचार किया।
शंकराचार्य बड़े ही उज्जवल चरित्र के व्यक्ति थे। वे सच्चे संन्यासी थे तथा उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। इन्होंने भाष्य, स्तोत्र तथा प्रकरण ग्रन्थ भी लिखे। 


आदि शंकराचार्य की मृत्यु कैसे हुई 

शंकराचार्य के मृत्यु के विषय मे कोई ठोस प्रमाण नही है परंतु लोगो का मानना है  की ३२ वर्ष की अवस्था में शंकराचार्य कैलाश पर्वत पर अंतिम बार देखे गए और यही इन्होंने समाधि ग्रहण की। 

शंकराचार्य का अन्तिम उपदेश था-


"हे मानव ! तू स्वयं को पहचान, स्वयं को
पहचानने के बाद तू ईश्वर को पहचान जायेगा।"


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Friday, 28 May 2021

Savarkar's biography Wikipedia, Vir savarkar

May 28, 2021 0
Savarkar's biography Wikipedia, Vir savarkar

Savarkar's biography, Vir savarkar born


Savarkar's biography



Full name VinayakDamodar
Savarkar
Born 28 May 1883

Born place

Nashik, Bhaglpur
Father Damodparant
Savarkar

BrotherGanesh Damodar Savarkar

Died26 february
1966


Veer Savarkar was born on 28 May 1883 in Nashik, Bhaglpur.  Savarkar's full name was Vinayak Damodar Savarkar.  Veer Savarkar was not only a freedom fighter but a politician, lawyer, social reformer.  His father's name was Damodparant Savarkar and mother's name was Radhabai. Savarka's parents died in childhood. He was strongly influenced by his elder brother  (Babararo).


Savarkar's biography


He was embellished with the vir  surname for his bravery and courage. He completed his graduation from 'Ferguson College', Pune. and completed his Bachelor’s Degree. He studied the law in England's "Gray's Law" College. Shyamji Krishna Verma was his good friend, he helped Savarkar to go to Inland. Savarkar inspired Indian students and formed "Free India Society" in 1857.

Thursday, 13 May 2021

amazing facts about tipu sultan | Tipu sultan ki jivani

May 13, 2021 0
amazing facts about tipu sultan | Tipu sultan ki jivani


            टीपू सुल्तान



टीपू सुल्तान हैदरअली का पुत्र था और इसका जन्म सन् 1753 ई० में हुआ था। इसके पिता मैसूर के शासक थे। कुछ लोग समझते हैं कि हैदरअली मैसूर का राजा था। यह बात नहीं है। हैदरअली ने अपने को कभी राजा नहीं बनाया। मैसूर के राजा की मृत्यु के बाद उसने उनके छोटे पुत्र को जिसकी अवस्था तीन-चार वर्ष की थी, राजा घोषित कर दिया और उन्हीं के नाम पर सब काम-काज करता रहा। 


उसने धीरे-धीरे मैसूर राज्य की सीमा बढ़ा ली थी। कुछ पढ़ा-लिखा न होने पर भी उसको सेना सम्बन्धी अच्छा ज्ञान था। उसका सहायक खांडेराव एक महाराष्ट्री था।

टीपू जब तीस साल का हुआ, हैदरअली की मृत्यु हुई। युद्ध तथा शासन का तब तक उसे बहुत अच्छा ज्ञान हो गया था। उस समय भारत में इंग्लैण्ड की ईस्ट इण्डिया कम्पनी अपना राज्य फैला रही थी। हैदर अली कई बार कम्पनी से लड़ा था जिसके कारण टीपू को अंग्रेजों से लड़ने के रंग-ढंग की जानकारी हो गयी थी। इस युद्ध में टीपू ने नये ढंग के आक्रमण का तरीका निकाला था।


 वह एकाएक बहुतं जोरों से बिजली की भाँति आक्रमण करता था और शत्रु के पैर उखड़ जाते थे। हैदरअली स्वयं पढ़ा-लिखा नहीं था परन्तु टीपू की शिक्षा की उसने अच्छी व्यवस्था कर दी थी। अतः टीपू शिक्षित भी था और घुड़सवारी में भी निपुण था। 


जिस समय टीपू को पिता की मृत्यु का समाचार मिला वह भारत के पश्चिम मालाबार में अंग्रेजों से लड़ रहा था। उसने लड़ाई छोड़ना ही उचित समझा। वहाँ सभी दरबारियों तथा मन्त्रियों ने इनको ही सहायता दी और टीपू मैसूर की बड़ी सेना का सेनापति बनाया गया।

इसके बाद उसे अंग्रेजों से लड़ाई लड़ने का प्रबन्ध करना था। अंग्रेजों ने मराठों से सन्धि कर ली और टीपू पर आक्रमण किया। इस लड़ाई में टीपू और अंग्रेजों को पराजित किया। टीपू ने अपनी सहायता के लिए कुछ फ्रेंच सिपाही भी रखे थे जो उन दिनों भारत में थे।


 अंग्रेजों ने टीपू से सन्धि की प्रार्थना की। इस सन्धि की बातें करने के लिए अंग्रेजों की ओर से एक दल आया और टीपू से अंग्रेजों की सन्धि हो गयी किन्तु अंग्रेजों ने यह सन्धि इसलिए की थी कि हमें समय मिल जाय जिसमें हम और तैयारी कर लें और टीपू की सारी शक्ति को चूर कर डालें। टीपू को इसका ध्यान न रहा। वह  समझता था कि मैंने अंग्रेजों को हरा दिया है, मेरी शक्ति उनके बराबर तो है ही। यहीं उसने धोखा खाया। उसने शत्रु की शक्ति का अनुमान ठीक नहीं लगाया। 


फ्रेंच सैनिकों ने भी टीपू के इस विचार का समर्थन किया। इतना ही नहीं, उन लोगों ने उसे भड़काया भी था। उन लोगों का विचार था कि यदि अवसर मिले तो टीपू की सहायता से अंग्रेजों को भारत के दक्षिण से निकालकर स्वयं वहाँ राज्य करें। इन बातों से टीपू का उत्साह बढ़ गया। टीपू ने फ्रांस से कुछ सहायता पाने की आशा की, कुछ जगह पत्र भी लिखा। उसका यही अभिप्राय था कि अंग्रेजों को भारतवर्ष से निकाल दिया जाए।


अंग्रेजों को इस बात का पता लग गया और उन्होंने टीपू को समय देना उचित न समझा। उन्होंने टीपू के विरुद्ध सेना भेज दी। इस बार अंग्रेजों और टीपू के बीच कई बार घमासान लड़ाइयाँ हुई और अन्त में टीपू घिर गया। कुछ दिनों के बाद टीपू लड़ते हुए मारा गया। टीपू को विजय प्राप्त नहीं हुई, यह उसका दुर्भाग्य था। किन्तु यदि उसे सचमुच सहायता मिली होती तो अंग्रेजों का राज्य भारतवर्ष में शायद दृढ़ न हो पाता और हमारे देश का इतिहास बदल गया होता। यदि वह अंग्रेजों से ले देकर सन्धि कर लेता तो उसे कोई कठिनाई न होती किन्तु उसने ऐसा नहीं किया और इसी कारण अंग्रेज भी उसका नाश करने पर तुले हुए थे। 


टीपू ने अपने राज्य में अनेक सुधार किये थे। उस समय वहाँ ऐसी प्रथा थी कि एक स्त्री कई पुरुषों से विवाह कर सकती थी। यह प्रथा उसने बन्द कर दी और नियम बनाया कि जो ऐसा करेगा उसे कठोर दण्ड दिया जायेगा। वह स्वयं शराब नहीं पीता था और उसके राज्य में शराब पीना अपराध था। उसकी पढ़ने-लिखने में रुचि थी और उसका निजी पुस्तकालय था। उन दिनों पुस्तकालय बनाना कठिन था क्योंकि छापाखाना नहीं था और हाथ से लिखी पुस्तकें ही मिलती थीं। उन पुस्तकों से पता चलता है कि साहित्य के साथ-साथ टीपू की कविता, गणित, ज्योतिष, विज्ञान तथा कला में भी रुचि थी।


टीपू का जीवन आमोद-प्रमोद में नहीं बीतता था। सबेरे से सन्ध्या तक वह परिश्रम करता था और चाहता था कि दूसरे भी इसी प्रकार राज्य का काम-काज करें। उसने तिथियाँ सूर्य-वर्षों के अनुसार चलायी थीं। युद्ध-कला पर उसने एक पुस्तक भी लिखी। उसकी स्पष्ट आज्ञा थी युद्ध के पश्चात् लूटपाट में स्त्रियों को कोई न छुए। अपनी माता का वह बहुत सम्मान करता था और सदा उनकी आज्ञा का पालन करता था।


टीपू ने अपने पिता के सम्मुख युवावस्था में लिख कर प्रतिज्ञा की थी कि मैं झूठ कभी नहीं बोलूंगा, धोखा किसी को नहीं दूंगा, चोरी नहीं करूँगा और जीवन के अन्त तक उसने इस प्रतिज्ञा का पालन किया। टीपू हिन्दू-मुस्लिम मेल-जोल का पक्षपाती था। उसकी सेना में तथा मन्त्रि मण्डल में सभी धर्मों के अनुयायी थे। हाँ, धोखा देने वालों के साथ उसका व्यवहार कठोर होता था और उन्हें वह दण्ड देता था।

टीपू, वह वीर था जिसने अपने देश को विदेशियों के चंगुल से छुड़ाने का कठिन प्रयत्न किया। उसे सफलता नहीं मिली, किन्तु उसके महान होने में कोई सन्देह नहीं है।


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