टीपू सुल्तान
उसने धीरे-धीरे मैसूर राज्य की सीमा बढ़ा ली थी। कुछ पढ़ा-लिखा न होने पर भी उसको सेना सम्बन्धी अच्छा ज्ञान था। उसका सहायक खांडेराव एक महाराष्ट्री था।
टीपू जब तीस साल का हुआ, हैदरअली की मृत्यु हुई। युद्ध तथा शासन का तब तक उसे बहुत अच्छा ज्ञान हो गया था। उस समय भारत में इंग्लैण्ड की ईस्ट इण्डिया कम्पनी अपना राज्य फैला रही थी। हैदर अली कई बार कम्पनी से लड़ा था जिसके कारण टीपू को अंग्रेजों से लड़ने के रंग-ढंग की जानकारी हो गयी थी। इस युद्ध में टीपू ने नये ढंग के आक्रमण का तरीका निकाला था।
वह एकाएक बहुतं जोरों से बिजली की भाँति आक्रमण करता था और शत्रु के पैर उखड़ जाते थे। हैदरअली स्वयं पढ़ा-लिखा नहीं था परन्तु टीपू की शिक्षा की उसने अच्छी व्यवस्था कर दी थी। अतः टीपू शिक्षित भी था और घुड़सवारी में भी निपुण था।
जिस समय टीपू को पिता की मृत्यु का समाचार मिला वह भारत के पश्चिम मालाबार में अंग्रेजों से लड़ रहा था। उसने लड़ाई छोड़ना ही उचित समझा। वहाँ सभी दरबारियों तथा मन्त्रियों ने इनको ही सहायता दी और टीपू मैसूर की बड़ी सेना का सेनापति बनाया गया।
इसके बाद उसे अंग्रेजों से लड़ाई लड़ने का प्रबन्ध करना था। अंग्रेजों ने मराठों से सन्धि कर ली और टीपू पर आक्रमण किया। इस लड़ाई में टीपू और अंग्रेजों को पराजित किया। टीपू ने अपनी सहायता के लिए कुछ फ्रेंच सिपाही भी रखे थे जो उन दिनों भारत में थे।
अंग्रेजों ने टीपू से सन्धि की प्रार्थना की। इस सन्धि की बातें करने के लिए अंग्रेजों की ओर से एक दल आया और टीपू से अंग्रेजों की सन्धि हो गयी किन्तु अंग्रेजों ने यह सन्धि इसलिए की थी कि हमें समय मिल जाय जिसमें हम और तैयारी कर लें और टीपू की सारी शक्ति को चूर कर डालें। टीपू को इसका ध्यान न रहा। वह समझता था कि मैंने अंग्रेजों को हरा दिया है, मेरी शक्ति उनके बराबर तो है ही। यहीं उसने धोखा खाया। उसने शत्रु की शक्ति का अनुमान ठीक नहीं लगाया।
फ्रेंच सैनिकों ने भी टीपू के इस विचार का समर्थन किया। इतना ही नहीं, उन लोगों ने उसे भड़काया भी था। उन लोगों का विचार था कि यदि अवसर मिले तो टीपू की सहायता से अंग्रेजों को भारत के दक्षिण से निकालकर स्वयं वहाँ राज्य करें। इन बातों से टीपू का उत्साह बढ़ गया। टीपू ने फ्रांस से कुछ सहायता पाने की आशा की, कुछ जगह पत्र भी लिखा। उसका यही अभिप्राय था कि अंग्रेजों को भारतवर्ष से निकाल दिया जाए।
अंग्रेजों को इस बात का पता लग गया और उन्होंने टीपू को समय देना उचित न समझा। उन्होंने टीपू के विरुद्ध सेना भेज दी। इस बार अंग्रेजों और टीपू के बीच कई बार घमासान लड़ाइयाँ हुई और अन्त में टीपू घिर गया। कुछ दिनों के बाद टीपू लड़ते हुए मारा गया। टीपू को विजय प्राप्त नहीं हुई, यह उसका दुर्भाग्य था। किन्तु यदि उसे सचमुच सहायता मिली होती तो अंग्रेजों का राज्य भारतवर्ष में शायद दृढ़ न हो पाता और हमारे देश का इतिहास बदल गया होता। यदि वह अंग्रेजों से ले देकर सन्धि कर लेता तो उसे कोई कठिनाई न होती किन्तु उसने ऐसा नहीं किया और इसी कारण अंग्रेज भी उसका नाश करने पर तुले हुए थे।
टीपू ने अपने राज्य में अनेक सुधार किये थे। उस समय वहाँ ऐसी प्रथा थी कि एक स्त्री कई पुरुषों से विवाह कर सकती थी। यह प्रथा उसने बन्द कर दी और नियम बनाया कि जो ऐसा करेगा उसे कठोर दण्ड दिया जायेगा। वह स्वयं शराब नहीं पीता था और उसके राज्य में शराब पीना अपराध था। उसकी पढ़ने-लिखने में रुचि थी और उसका निजी पुस्तकालय था। उन दिनों पुस्तकालय बनाना कठिन था क्योंकि छापाखाना नहीं था और हाथ से लिखी पुस्तकें ही मिलती थीं। उन पुस्तकों से पता चलता है कि साहित्य के साथ-साथ टीपू की कविता, गणित, ज्योतिष, विज्ञान तथा कला में भी रुचि थी।
टीपू का जीवन आमोद-प्रमोद में नहीं बीतता था। सबेरे से सन्ध्या तक वह परिश्रम करता था और चाहता था कि दूसरे भी इसी प्रकार राज्य का काम-काज करें। उसने तिथियाँ सूर्य-वर्षों के अनुसार चलायी थीं। युद्ध-कला पर उसने एक पुस्तक भी लिखी। उसकी स्पष्ट आज्ञा थी युद्ध के पश्चात् लूटपाट में स्त्रियों को कोई न छुए। अपनी माता का वह बहुत सम्मान करता था और सदा उनकी आज्ञा का पालन करता था।
टीपू ने अपने पिता के सम्मुख युवावस्था में लिख कर प्रतिज्ञा की थी कि मैं झूठ कभी नहीं बोलूंगा, धोखा किसी को नहीं दूंगा, चोरी नहीं करूँगा और जीवन के अन्त तक उसने इस प्रतिज्ञा का पालन किया। टीपू हिन्दू-मुस्लिम मेल-जोल का पक्षपाती था। उसकी सेना में तथा मन्त्रि मण्डल में सभी धर्मों के अनुयायी थे। हाँ, धोखा देने वालों के साथ उसका व्यवहार कठोर होता था और उन्हें वह दण्ड देता था।
टीपू, वह वीर था जिसने अपने देश को विदेशियों के चंगुल से छुड़ाने का कठिन प्रयत्न किया। उसे सफलता नहीं मिली, किन्तु उसके महान होने में कोई सन्देह नहीं है।
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