जीवन परिचय biography

Thursday, 9 September 2021

स्वामी विवेकानन्द जी का जीवन परिचय, नरेंद्र की कुछ अदभुत बातें

September 09, 2021 1
स्वामी विवेकानन्द जी का जीवन परिचय, नरेंद्र की कुछ अदभुत बातें

स्वामी विवेकानंद


स्वामी विवेकानन्द

स्वामी विवेकानंद द्वारा अमेरिका में कहे गए शब्द

"यदि कोई व्यक्ति यह समझता है कि वह दूसरे धर्मों का विनाश कर अपने धर्म की विजय करलेगी, तो बन्धुओं ! उसकी यह आशा कभी भी पूरी नहीं होने वाली। सभी धर्म हमारे अपने हैं, इस भाव से उन्हें अपनाकर ही हम अपना और सम्पूर्ण मानवजाति का विकास कर पायेंगे। यदि भविष्य में कोई ऐसा धर्म उत्पन्न हुआ जिसे सम्पूर्ण विश्व का धर्म कहा जाएगा तो वे अनन्त और निर्वाध होगा। वह धर्म न तो हिन्दू होगा, न मुसलमान, म बौद्ध, न ईसाई अपितु वह इन सबके मिलन और सामंजस्य से पैदा होगा।"

स्वामी विवेकानंद का जन्म

स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी कोलकाता में हुआ था। इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त तथा माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। इनके बचपन का नाम नरेन्द्र था। घर का वातावरण अत्यन्त धार्मिक था।

दोपहर में सारे परिवार की स्त्रियाँ इकट्ठा होती और कथा-वार्ता कहतीं। नरेन्द्र शांत होकर बड़े भाव से इन कथाओं को सुनता। बचपन में ही नरेन्द्र ने रामायण तथा महाभारत के अनेक प्रसंग तथा भजन कीर्तन कण्ठस्थ कर लिये थे।


नरेन्द्र की प्राथमिक शिक्षा घर पर ही हुई। इसके उपरान्त वे विभिन्न स्थानों पर शिक्षा प्राप्त करने गए।

कुश्ती, बॉक्सिंग, दौड़, घुड़दौड़, तैराकी, व्यायाम उनके शौक थे। उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था। सुन्दर व आकर्षक व्यक्तित्व के कारण लोग उन्हें मन्त्र-मुग्ध होकर देखते रह जाते। घर पर पिता की विचारशील पुरुषों से चर्चा होती। नरेन्द्र उस चर्चा में भाग लेते और अपने विचारों से विद्वत्मण्डली को आश्चर्य चकित कर देते। उन्होंने बी०ए० तक शिक्षा प्राप्त की। इस समय तक उन्होंने पाश्चात्य और भारतीय संस्कृति का विस्तृत अध्ययन कर लिया था। दार्शनिक विचारों के अध्ययन से उनके मन में सत्य को जानने की इच्छा लगी।

नरेंद्र (स्वामी विवेकानंद) के गुरु 

कुछ समय पश्चात नरेन्द्र ने अनुभव किया कि उन्हें बिना योग्य गुरु के सही मार्गदर्शन नहीं मिल सकता है क्योंकि जहाँ एक ओर उनमें आध्यात्मिकता के प्रति जन्मजात रुझान था वहीं उतना ही प्रखर कि बुद्धि युक्त तार्किक स्वभाव था। ऐसी परिस्थिति में वे ब्रह्म समाज की ओर आकर्षित हुए। नरेन्द्र नाथ का प्रश्न किया "क्या ईश्वर का अस्तित्व है ?" इस प्रश्न के समाधान के लिए वे अनेक व्यक्तियों से मिले लेकिन समाधान न पा सके। इसी बीच उन्हें ज्ञात हुआ कि कोलकाता के समीप दक्षिणेश्वर में एक तेजस्वी पुरुष निवास करते हैं।


अपने चचेरे भाई से भी नरेन्द्र ने इन साधु के बारे में सुना। वे मिलने चल दिए। वे साधु थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस । नरेन्द्र ने उनसे पूछा - "महानुभाव, क्या आपने ईश्वर को देखा है ?" उत्तर मिला हा मैंने देखा है, ठीक ऐसे ही जैसे तुम्हें देख रहा हूँ , बल्कि तुमसे भी अधिक स्पष्ट और प्रगाढ़ रूप में।" नरेन् ।इस उत्तर पर मौन रह गये। उन्होंने मन ही मन सोचा - चलो कोई तो ऐसा मिला जो अपनी अनुभूति के आधार पर यह कह सकता है कि ईश्वर का अस्तित्व है। नरेन्द्र नाथ का संशय दूर हो गया। शिष्य की आध्यात्मिक शिक्षा का श्री गणेश यहीं से हुआ।


स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने इस विद्वान, चंचल और हठी युवक में भावी युगप्रवर्तक और अपने सन्देशवाहक को पहचान लिया था। उन्होंने टिप्पणी की- "नरेन (नरेन्द्र) एक दिन संसार को आमूल झकझोर डालेगा।"


गुरु रामकृष्ण ने अपने असीम धैर्य द्वारा इस नवयुवक भक्त की क्रान्तिकारी भावना का शमन कर दिया। उनके प्यार ने नरेन्द्र को जीत लिया और नरेन्द्र ने भी गुरु को उसी प्रकार भरपूर प्यार और श्रद्ध दी।

अपनी महासमाधि से तीन-चार दिन पूर्व श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपनी सारी शक्तियाँ नरेन्द्र को दे डाली और कहा "मेरी इस शक्ति से, जो तुममें संचारित कर दी है, तुम्हारे द्वारा बड़े-बड़े कार्य होंगे और उसके बाद तुम वहाँ चले जाओगे जहाँ से आये हो"।


रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के पश्चात नरेन्द्र परिव्राजक के वेश में मृत छोड़कर निकल पड़े। उन्होंने सम्पूर्ण भारत में घूम-घूम कर रामकृष्ण के विचारों को फैलाना प्रारम्भ कर दिया। वे भारतीय जनता से मिलते। उनके सुख दुःख बाँटते। दलितों शोषितों के प्रति उनके मन में विशेष करुणा का भाव था। यह समाचार पढ़कर कि कोलकाता में एक आदमी भूख से मर गया, द्रवित स्वर में वे पुकार उठे “मेरा देश ! छाती पीटते हुए उन्होंने स्वयं से प्रश्न किया "धर्मात्मा कहे जाने वाले हम संन्यासियों ने जनता के लिए क्या किया है ?" इसी समय उन्होंने अपना पहला कर्तव्य तय किया – “दरिद्रजन की सेवा, उनका उद्धार" उनके द्रवित कण्ठ से यह स्वर फूटा " यदि दरिद्र पीड़ित मनुष्य की सेवा के लिए मुझे बार-बार जन्म लेकर हजारों यातनाएँ भी भोगनी पड़ी, तो मैं भोगूंगा।

विवेकानंद का उद्देश्य

स्वामी विवेकानन्द जी ने अपने जीवन के कुछ उद्देश्य निर्धारित किये। सबसे बड़ा कार्य धर्म की पुनस्थापना का था। उस समय भारत ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व में बुद्धिवादियों की धर्म से श्रद्धा उठती जा रही थी। अतः आवश्यक था धर्म की ऐसी व्याख्या प्रस्तुत करना जो मानव जीवन को सुखमय बना सके। दूसरा कार्य था हिन्दू धर्म और संस्कृति पर हिन्दुओं की श्रद्घा जमाए रखना जो उस समय यूरोप के प्रभाव में आते जा रहे थे। तीसरा कार्य था भारतीयों को उनकी संस्कृति, इतिहास और आध्यात्मिक परम्पराओं का योग्य उत्तराधिकारी बनाना। स्वामी जी की वाणी और विचारों से भारतीयों में यह विश्वास जाग्रत हुआ कि उन्हें किसी के सामने मस्तक झुकाने अथवा लज्जित होने की आवश्यकता नहीं।

विवेकानंद द्वारा शिकागो में भाषण

लगभग तीन वर्ष तक स्वामी जी ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण कर प्रत्यक्षतः ज्ञान प्राप्त किया। इस अवधि में अधिकांशत: वे पैदल ही चले। उन्होंने देश की अवनति के कारणों पर मनन किया और उन साधनों पर विचार किया जिनसे कि देश का पुनः उत्थान हो सके। भारत की दरिद्रता के निवारण हेतु सहायता प्राप्ति के उद्देश्य से उन्होंने पाश्चात्य देशों की यात्रा का निर्णय किया ।

सन् 1863 ई० में शिकागो (अमेरिका) में सम्पूर्ण विश्व के धर्माचार्यों का सम्मेलन होना निश्चित हुआ।


स्वामी जी के हृदय में यह भाव जाग्रत हुआ कि वे भी इस सम्मेलन में जाएँ। खेतरी नरेश, जो कि उनके शिष्य थे, ने स्वामी जी की इस भावना की पूर्ति में सहयोग किया। खेतरी नरेश के प्रस्ताव पर उन्होंने अपना नाम विवेकानन्द धारण किया और अनेक प्रचण्ड बाधाओं को पारकर इस सम्मेलन में सम्मिलित हुए। 

निश्चित समय पर धर्म सभा का कार्य प्रारम्भ हुआ । विशाल भवन में हजारों नर-नारी श्रोता उपस्थित थे। सभी वक्ता अपना भाषण लिखकर लाए थे जबकि स्वामी जी ने ऐसी, कोई तैयारी न की थी। धर्म सभा में स्वामी जी को सबसे अन्त में बोलने का अवसर दिया गया क्योंकि वहाँ न कोई उनका समर्थक था, न उन्हें कोई पहचानता था।


स्वामी विवेकानंद जी ने ज्यों ही श्रोताओ को सम्बोधित किया "अमेरिका वासी बहनों और भाइयों !" त्यों ही सारा सभा भवन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। बहुत देर तक तालियाँ बजती रहीं। पूर्व के सभी वक्ताओं ने सम्बोधन में कहा था 'अमेरिका वासी महिलाओं एवं पुरुषों। स्वामी जी के अपनत्व भरे सम्बोधन ने सभी श्रोताओं का हृदय जीत लिया। तालियाँ थमने पर स्वामी जी ने व्याख्यान प्रारम्भ किया। अन्य सभी वक्ताओं ने जहाँ अपने-अपने धर्म और ईश्वर की श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश की, वहीं स्वामी विवेकानन्द ने सभी धर्मों को कार करते हुए घोषणा की "लड़ो नहीं साथ चलो। खण्डन नहीं, मिलो। विग्रह नहीं, समन्वय और शांति के पथ पर बढ़ो।' इस भाषणे से उनकी ख्याति सम्पूर्ण विश्व में फैल गयी। अमेरिका के अग्रणी पत्र दैनिक हेराल्ड ने लिखा "शिकागो धर्म सभा में विवेकानन्द ही सर्वश्रेष्ठ व्याख्याता हैं।" प्रेस ऑफ अमेरिका ने लिखा “उनकी वाणी में जादू है, उनके शब्द हृदय पर गम्भीरता से अंकित हो जाते हैं।"


स्वामी विवेकानंद जी की विदेश यात्रा के कई उददेश्य थे। एक तो वे भारतवासियों के इस अन्धविश्वास को तोड़ना चाहते थे कि समुद्र यात्रा पाप है, तथा विदेशियों के हाथ का अन्न-जल ग्रहण करने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है।

दूसरा यह कि भारत में अंग्रेजी प्रभाव वाले लोगों को वे यह भी दिखाना चाहते थे कि भारतवासी भले ही अपनी संस्कृति का आदर करें या न करें, पश्चिम के लोग जरूर उससे प्रभावित हो सकते है।

शिकागो सम्मेलन के बाद जनता के विशेष अनुरोध पर स्वामी जी तीन वर्ष अमेरिका और इंग्लैण्ड रहे। इस अवधि में भाषणों, वक्तव्यों, लेखों, वाद-विवादों के द्वारा उन्होंने भारतीय विचारधारा को पूरे यूरोप में फैला दिया।

स्वामी जी के शिष्य

विदेश यात्रा में उन्हें सबसे मधुर मित्र के रूप में जे०जे० गुडविन, सेवियर दम्पति और मार्गरेट नोब्बल मिले जिन्होंने उनके कार्य एवं विचारों को सर्वत्र फैलाया। मार्गरेट नोब्ल ही 'भगिनी निवेदिताा' कहलायी।

भगिनी निवेदिता भारतीय तपस्वी समाज में प्रवेश करने वाली प्रथम पाश्चात्य महिला थीं। इन्होंने पश्चिम में विवेकानन्द की विचारधारा के प्रचार-प्रसार हेतु जितना कार्य किया उतना किसी और ने नहीं किया। विदेश यात्रा के दौरान ही उनकी भेंट प्रसिद्ध विद्वान मैक्समूलर से हुई। विवेकानन्द ने उन्हें भारत आने का निमंत्रण दिया। मैक्समूलर स्वामी जी के ज्ञान एवं व्यवहार से अभिभूत हो गये।


स्वामी जी ने यूरोप और अमेरिकावासियों को भोग के स्थान पर संयम और त्याग का महत्त्व समझाया, जबकि भारतीयों का ध्यान समाज की आर्थिक दुरावस्था की ओर आकृष्ट किया। उन्होंने कहा - "जो भूख से तड़प रहा हो उसके आगे दर्शन और धर्मग्रन्थ परोसना उसका मजाक उड़ाना है। उन्होंने कहा- "भारत का कल्याण शक्ति साधना में है यहाँ के जन-जन में जो साहस और विवेक छिपा है उसे बाहर लाना है।


मैं भारत में लोहे की माँसपेशियाँ और फौलाद की नाड़ियाँ देखना चाहता हूँ।" मानव मात्र के प्रति प्रेम और सहानुभूति उनका स्वभाव था। वे कहा करते – “जब पड़ोसी भूखा मरता हो तब मन्दिर में भोग लगाना पुण्य नहीं पाप है। वास्तविक पूजा निर्धन और दरिद्र की पूजा है, रोगी और कमजोर की पूजा है।"

इंग्लैण्ड और अमेरिका में पर्याप्त प्रचार कार्य की व्यवस्था कर स्वामी जी भारत आये। यहाँ पहुँचकर अपने कार्य को दृढ़ आधार देने तथा मानव मात्र की सेवा के उद्देश्य से 1867 ई० में 'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की। मिशन का लक्ष्य सर्वधर्म समभाव था। नये मठों का निर्माण, देश-विदेश में प्रचार कार्य की व्यवस्था, इस सबके कारण स्वामी जी को विश्राम नहीं मिल पाता था। इसका प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ने लगा। चिकित्सकों के सुझाव पर स्थान परिवर्तन कर दार्जिलिंग चले गये, पर तभी कोलकाता में प्लेग फैल गया। उन्हें यह समाचार मिला तो वे महामारी से ग्रस्त लोगों की सेवा के लिए विकल हो उठे। उन्होंने कोलकाता लौटकर प्लेग ग्रस्त लोगों की सेवा का कार्य शुरुकर दिया ।

स्वामी विवेकानंद जी के हृदय में नारियों के प्रति असीम उदारता का भाव था। वे कहते थे - जो जाति नारी का सम्मान करना नहीं जानती वह न तो अतीत में उन्नति कर सकी, न आगे कर सकेगी।

4 जुलाई सन् 1902 ई० को वे प्रातः काल से ही अत्यन्त प्रफुल्ल दिख रहे थे। ब्रह्म मुहूर्त में उठे। पूजा की। शिष्यों के बीच बैठकर रुचिपूर्वक भोजन किया। छात्रों को संस्कृत पढ़ाई । फिर एक शिष्य के साथ बेलूर मार्ग पर लगभग दो मील चले और भविष्य की योजना समझाई। शाम हुई। संन्यासी बन्धुओं से स्नेहमय वार्तालाप किया। राष्ट्रों के अभ्युदय और पतन का प्रसंग उठाते हुए कहा "यदि भारत समाज संघर्ष में पड़ा तो नष्ट हो जाएगा।

विवेकानंद की मृत्यु (अंतिम यात्रा)

सात बजे मठ में आरती के लिए घंटी बजी। वे अपने कमरे में चले गये और गंगा की ओर देखने लगे। जो शिष्य साथ था उसे बाहर भेजते हुए कहा मेरे ध्यान में विघ्न नहीं होना चाहिए। पैंतालीस मिनट बाद शिष्य को बुलाया सब खिड़कियाँ खुलवा दीं। भूमि पर बायीं करवट चुपचाप लेटे रहे। ध्यान मग्न प्रतीत होते थे। घण्टे पहर बाद एक गहरा निःश्वास छोड़ा और फिर चिर मौन छा गया। एक गुरुभाई ने कहा- "उनके नथुनों, मुँह और आँखों में थोड़ा रक्त आ गया है ।'' दिखता था कि वे समाधि में थे। इस समय उनकी अवस्था उन्तालीस वर्ष की थी।

अगले दिन संघर्ष, त्याग और तपस्या का प्रतीक वे महापुरुष स्वामी विवेकानन्द संन्यासी गुरु भाई और शिष्यों के कंधों पर जय-जयकार की ध्वनि के साथ चिता की ओर जा रहा था। वातावरण में जैसे ये शब्द अब भी गूंज रहे थे - "शरीर तो एक दिन जाना ही है, फिर आलसियों की भाँति क्यों जिया जाए। जंग लगकर मरने की अपेक्षा कुछ करके मरना अच्छा है। उठो जागो और अपने अन्तिम लक्ष्य की पूर्ति हेतु कर्म में लग जाओ।"


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Sunday, 6 June 2021

Surdas ka jivan parichay | surdas ke pad

June 06, 2021 0
Surdas ka jivan parichay | surdas ke pad

 Surdas ka jivan parichay (सूरदास के दोहे)



सूरदास का जन्म

1478-1583 ई० (१४७८ ई.-१५८३ ई.)



सूरदास का जन्मसन 1478 ई०
जन्म स्थान
सीही नामक ग्राम में

माता-पिता
अज्ञात
सूरदास के गुरुरामानंद
प्रमुख रचनाएँसूरसागर, सुरसारवाली, साहित्य लहरी

सूरदास की मृत्युसन 1583 ई०

पारसोली नामक ग्राम


कृष्ण भक्त शिरोमणि, स्वामी बल्लभाचार्य के पट्ट शिष्य, अष्टछाप के कवियों में अग्रगण्य सूरदास का जन्म 1478 ई. (विक्रमी संवत 1535) में 'सीही ग्राम में पण्डित रामदास सारस्वत के घर हुआ था और वे 1583 ई. (वि. सं. 1840) में 'पारसोली' में गोलोकवासी हो गये। सूरदास को कुछ लोग जन्मान्ध मानते हैं, किन्तु काव्य जगत में उनका सूक्ष्म चित्रण एवं बाल सुलभ घेष्टाओं का विशद वर्णन पढ़कर लगता है कि वे जन्मान्ध नहीं थे। संभवतः उन्होंने बाद में दृष्टि खो दी हो। किंवदन्ती है कि एक बार वे कुएं में गिर गये थे और उनके इष्ट भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें कुएँ से निकाला तो सूरदास ने कहा था-


"बाँह छुड़ाये जात हो, निवल जान के मोहि।
हिरवय से जब जाओगे, सबल जानिहीं तोहि।।"


यह भी कहा जाता है कि विल्वमंगल ही सूरदास थे। वे गऊघाट मथुरा में रहते थे।
सूरदास, वल्लभाचार्य जी द्वारा प्रवर्तित पुष्टिमार्ग (पोषणं तदनुग्रहः अर्थात् भगवान के अनुग्रह से ही भक्ति का पोषण होता है) के सशक्त हस्ताक्षर थे।


सूरदास की रचनाएँ

उनकी तथाकथित १६ कृतियों में मात्र तीन कृतियाँ-(१) सूरसागर, (२) सूरसारावली, (३) साहित्य लहरी ही प्रामाणिक मानी गई हैं उनमें भी 'सूरसागर' ही श्रेष्ठ है। 'सूरसागर' में बिनय के पद से लेकर 'श्रीमद्भागवत' के देशम स्कन्ध पर आधारित पद हैं जिनकी संख्या सवा लाख कही जाती है। कुछ लोग इन पदों की संख्या
60 हजार ही मानते हैं, किन्तु डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा मात्र 4132 पद ही सूरदास के सूरसागर में मानते हैं।
सूरदास ने वैसे तो सभी रसों का वर्णन किया है, किन्तु उन्होंने शृंगार रस के दोनों पक्षों संयोग, वियोग एवं वात्सल्य रस का मनोयोग से चित्रण किया है। 


वात्सल्य रस सम्राट् सुुरदास ही थे। बाल मनोविज्ञान के ये अदभुत ज्ञाता थे। बिभिन्न अलंकारी, शब्द शक्त्तियों व मनोहर शैली का सहारा लेकर वे पूर्णत्व को प्राप्त हो चुके थे तभी तो उनके विषय में कहा गया है- 

'सूर तुलसी ससी, उडुगन केशवदास' । हिन्दी साहित्य में ब्रजभाषा काव्य का प्रथम रचयिता सूर को माना जाता है। उन्होंने वर्ण्य विषयानुसार विभिन्न राग-रागिनियों में बँधी अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की। वे महान् संगीतकार भी थे। निश्चय ही सूर ब्रजभाषा के बेजोड़ कवि हैं तथा हिन्दी साहित्य में अद्विती है।



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Kabir das ka jivan Parichay | Kabir das in hindi

June 06, 2021 1
Kabir das ka jivan Parichay | Kabir das in hindi


Kabir das ka jivan Parichay


ऐसा माना किया जाता है कि महात्मा कबीरदास जी का जन्म काशी में 1398 ई.(वि.सं. 1444) में हुआ था। इनके जन्म स्थान के सम्बन्ध में तीन मत है मगहर, काशी और आजमगढ़। कबीरदास जी ने स्वयं को अपने काव्य में काशी का जुलाहा कहा है। अतः इनका जन्म-स्थान काशी ही निश्चित होता है। 


Kabir das ka jivan Parichay


जनश्रुति के अनुसार कबीर का जन्म सन्त रामानन्द के आशीर्वाद से एक विधवा ब्राहाणी के गर्भ से हुआ था। मां ने जन्म देते ही समाज और लोकलाज के भय से इन्हें लहरतारा नामक तालाब के किनारे छोड़ दिया था। नीरू और नीमा नामक सन्तानहीन दम्पत्ति को यह बालक तालाब के किनारे पड़ा मिला। उन्होंने ही इनका पालन-पोषण किया। इस प्रकार ये बचपन से ही हिन्दू और मुसलमान-दोनों के संस्कारों से प्रभावित हुए। इनका विवाह लोई नामक स्त्री से हुआ, जिससे उनके कमान नाम का पुत्र और कमाली नाम की पुत्री हुई। 


Kabir das ka jivan Parichay in short
संक्षिप्त जीवन परिचय:

नाम कबीरदास
जन्म सन् 1398 ई०

जन्म स्थान काशी (वाराणसी)
जीवन अवधि 120 वर्ष

माता-पिता नीरू और नीमा
गुरु रामानंद
पत्नी लोई 
पुत्र पुत्री पुत्र कमल पुत्री कमली

कबीरदास के गुरु:

कबीरदासजी के गुरु रामानन्द थे। कहते हैं, रामानन्द ने इनको एक जुलाहा पुत्र होने के नाते शिष्य रूप में स्वीकार करने से इन्कार कर दिया था। तब ये एक दिन प्रातः गंगा के घाट की सीढ़ियों पर जाकर लेट गए। रामानन्द प्रतिदिन गंगा स्नान के लिए प्रातः ही जाया करते थे। अंधेरा होने के कारण रामानन्द इन्हें नहीं देख सके और उनका पैर इनके सीने पर पड़ गया। ये राम नाम का जाप करते हुए पीछे की तरफ लौट पड़े। कबीरदासजी ने उनके पैर पकड़ लिए और बोले अब मुझे राम नाम का गुरु-मन्त्र मिल गया। इनकी भक्ति देखकर रामानन्द ने इन्हें शिष्य रूप में स्वीकार कर लिया। 

कबीर दास जी का जीवन काल:

कबीरदास जी बचपन में मगहर में रहे थे और बाद में काशी में जाकर बस गए थे। जीवन के अन्तिम दिनों में ये पुनः मगहर चले गए थे। उस समय यह धारणा प्रचलित थी कि काशी में मरने से व्यक्ति को स्वर्ग मिलता है तथा मगहर में मरने से नरक। समाज में प्रचलित इसी अन्धविश्वास का खण्डन करने के लिए कबीरदासजी अन्तिम समय में मगहर चले गए थे। वहीं उन्होंने 1518 ई. (वि. सं. 1575) में अपने प्राण त्यागे और 120 वर्ष की लम्बी उम्र प्राप्त की। 


साधारण परिवार में जन्म लेने के कारण कबीरदास को अध्ययन का अवसर नहीं मिल सका। उन्होंने स्वयं के लिए स्वीकार किया है कि- "मसि कागद छुयो नहीं कलम गही नहिं हाथ" इस प्रकार किसी भी प्रकार की विद्यालयी शिक्षा न मिलने पर भी उनको सत्संग और व्यापक परिभ्रमण के कारण पर्याप्त ज्ञान प्राप्त हो गया था और वे मात्र प्रेम का ढाई आखर पढ़कर पण्डित हो गए थे।


यह भी कहा जाता है कि कवोर ने सूफी सन्त शेख तकी से दीक्षा ली थी। कबीर ने स्वयं अपनी रचनाओं को लिपिबद्ध नहीं किया था, क्योंकि उन्हें अक्षर या लिपि का ज्ञान नहीं था। उनके शिष्यों ने उनकी रचनाओं का संकलन किया। 


कबीरदास जी के साहित्य को पढ़ने से ज्ञात होता है कि उनकी बह दृढ़ आस्था थी कि जीवन कर्म के अनुसार गति पाता है। कबीरदासजी में काव्य सृजन की सहज प्रतिभा बी, अतः उनकी अटपटी वाणी से जो कुछ भी निकला वह काव्य बन गया। 

कबीर का सम्पूर्ण काव्य जीवन की गहन अनुभूतियों से ओत-प्रोत है। उनके काव्य का सर्वाधिक महत्व सामाजिक-धार्मिक एकता और भक्ति का सन्देश देने में है। अपने मन की अनुभूतियों को उन्होंने सहज और आम बोलचाल की भाषा में दोहे छन्द का कनेवर पहनाकर व्यक्त किया है। 

कबीरदास के शिष्य-

उन्होंने जो कुछ कहा वह अत्यधिक आश्चर्य उत्पन्न करने वाला है। विश्वास नहीं होता कि 'कलम गही नहिं हाथ' वाले कबीर इतने बड़े चिन्तक और महान् काव्य-कर्ता होंगे। रचनाएं—कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे फिर भी जो कुछ गा उठते थे उनके शिष्य उसे लिख लिया करते थे। 

सर्वप्रथम सन्न 1521 में उनके शिष्य धर्मदास ने उनकी रचनाओं का संग्रह 'बीजक' नाम से किया था। कबीर का एक अन्य ग्रन्थ 'कबीर ग्रन्थावली' के नाम से काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने प्रकाशित किया है। 

कबीरदास की रचनाएं:

कबीर की रचनाएं तीन भागों में विमल १. साखी-साखियां दोहा छन्द में लिखी गयी हैं। शिक्षा या सीख से परिपूर्ण होने के कारण इन्हें साखी कहते हैं। २. सबद-वे पदों के रूप में संकलित हैं। इनमें विषय की गम्भीरता एवं संगीतात्मकता है। ३. रमेनी–दोहे और चौपाई छन्दों में इनकी रचना की गयी है। इनमें कबीर ने अपने दार्शनिक और रहस्यवादी विचान को अभिव्यक्ति दी है। कबीर ग्रन्थावली इस ग्रन्थ में डॉ. श्यामसुन्दरदास ने कबीर की सम्पूर्ण रचनाओं का संकलन किया है।

कबीरदास जी की भाषा:

कबीरदासजी की भाषा एक सन्त की भाषा है जो स्वयं में निश्छलता को लिए हुए है। उसमें कहीं भी बनावटीपन क भाव समाहित नहीं है। उनकी भाषा में अरबी, फारसी, भोजपुरी, राजस्थानी, अवधी, पंजाबी, बुन्देलखण्डी, ब्रज एवं खड़ीबोली आदि विविध बोलियों और उपबोलियों तथा भाषाओं के शब्द मिल जाते हैं। इसीलिए उनको भाषा 'पंचमेल खिचड़ी' या 'सधुक्कड़ी' कहलाती है। सृजन की आवश्यकता के अनुसार वे शब्दों को तोड़-मरोड़कर प्रयोग करने में भी नहीं चूकते थे। 

Kabir das ka jivan parichay  (कबीरदास की शैली)

कबीरदास की शैली उपदेशात्मक है, जिसकी भाषा सहज एवं सरल है। अतः उनकी शैली उपदेशात्मक होते हुए भी क्लिष्ट शब्दों से बोझिल नहीं है। उन्होंने दोहे, चौपाई एवं पदों की रचना शैली अपनाकर इसका सफलतापूर्वक प्रयोग किया आपकी शैली मुक्तक काव्य शैली है, जिसमें उपदेशात्मकता सर्वत्र विद्यमान है। ज्ञानमार्गी कबीरदासजी का हिन्दी साहित्य में मूर्धन्य स्थान है उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में सत्य और पावनता पर बल दिया। समाज सुधार, राष्ट्रीय और धार्मिक एकता उनके उपदेशों का काव्यमय स्वरूप था। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही कहा है- “कबीर साधना के क्षेत्र में युग- गुरु थे और साहित्य के क्षेत्र में भविष्य द्रष्टा। उनके समकालीन एवं परवर्ती सभी सन्त-कवियों ने उनकी बाणी का अनुसरण किया।"


Saturday, 5 June 2021

छत्रसाल बुंदेला का इतिहास | छत्रसाल प्रसस्ति

June 05, 2021 0
छत्रसाल बुंदेला का इतिहास | छत्रसाल प्रसस्ति

छत्रसाल

छत्रसाल देश के उन इने-गिने महापुरुषों में हैं जिन्होंने अपने बल, बुद्धि तथा परिश्रम से बहुत साधारण स्थिति में अपने को बहुत बड़ा बना लिया।

छत्रसाल का जीवन काल

छत्रसाल के पिता का नाम चम्पतराय था। वे अत्यंत वीर थे। उनका जीवन सदा रणक्षेत्र में ही बीता। उनकी रानी भी सदा उनके साथ लड़ाई के मैदान में जाती थीं। उन दिनों रानियाँ बहुधा अपने पति के साथ रण में जाती थीं और पति को उत्साहित करती थीं। जब छत्रसाल अपनी माता के गर्भ में थे तब भी उनकी माता चम्पतराय के साथ रणक्षेत्र में ही थीं। चारों तरफ तलवारों की खनखनाहट और गोलियों की वर्षा हो रही थी। ऐसे ही वातावरण में छत्रसाल का जन्म एक पहाड़ी गाँव में सन् 1648 ई० में हुआ था।


उनके पिता चम्पतराय ने सोचा कि इस प्रकार के जीवन में छत्रसाल को अपने पास रखना ठीक नहीं है। रानी छत्रसाल को लेकर नैहर चली गयीं। चार साल तक छत्रसाल वहीं रहे। उसके बाद पिता के पास आए।

बचपन से ही छत्रसाल बड़े साहसी और निर्भीक थे। इनके खिलौनों में असली तलवार भी थी। इनके खेल भी रण के खेल होते थे। प्रायः सभी लोग कहते थे कि वे अपने जीवन में पराक्रमी और साहसी पुरुष होंगे। इनके गुणों के कारण ही इनका नाम छत्रसाल रखा गया। इसके अतिरिक्त आचार-व्यवहार के गुण भी इनमें बालपन से ही थे।


इन्हें बाल्यकाल में चित्र बनाने का बहुत शौक था। ये हाथी, घोड़े, तोप और बन्दूक-सवार सैनिक का चित्र बनाया करते थे। रामायण तथा महाभारत की कथा जब होती तो बड़े मन से सुनते थे। सातवें वर्ष से इनकी शिक्षा नियमित ढंग से आरम्भ हुई उस समय वे अपने मामा के यहाँ रहते थे। पुस्तकों की शिक्षा के साथ-साथ सैनिक-शिक्षा भी इन्हें दी जाती थी। दस वर्ष की अवस्था में ही छत्रसाल अस्त्र-शस्त्र को

कुशलता से चलाना सीख गये थे। हिन्दी कविता तथा अनेक धार्मिक पुस्तकें इन्होंने पढ़ लीं थीं। केशवदास कृत 'राम चन्द्रिका' इन्हें बहुत प्रिय थी।


छत्रसाल की अवस्था लगभग सोलह वर्ष की थी, जब इनके माता-पिता की मृत्यु हो गयी। छत्रसाल उस समय बहुत दुःखी हुए किन्तु उन्होंने धैर्यपूर्वक अपने आपको सँभाला और भविष्य के सम्बन्ध में सोचने लगे। छत्रसाल की अवस्था इस समय विचित्र थी। सारी जागीर छिन चुकी थी। इनके पास न सेना थी न पैसे थे। 

इन्होंने भविष्य का चित्र अपने मन में बना लिया और अपने काका के यहाँ चले गये। वहाँ कुछ दिन रहने के पश्चात् इन्होंने अपनी योजना अपने काका को बतायी। युद्ध की बात सुनकर इनके काका बहुत डरे। उन्होंने मुगलों की महती शक्ति का विवरण बताया और कहा कि युद्ध करना बेकार है। काका की बात इन्हें अच्छी न लगी और ये बड़े भाई के पास चले आए। बड़े भाई और ये एक ही मत के थे। दोनों ने मिलकर बुन्देलखण्ड का राज्य पुनः स्थापित करने की योजना बनायी।


पहला काम तो सेना एकत्र करना था किन्तु इसके लिए धन की आवश्यकता थी। इनकी माता के गहरे एक गाँव में रखे थे। दोनों भाइयों ने गहने बेचकर छोटी सी सेना तैयार की। इसके बाद से छत्रसाल का जीवन युद्ध करते ही बीता। ये बहुत चतुर थे। इनके लड़ने का ढंग इतना योग्यतापूर्ण होता था कि कदाचित ही कोई युद्ध ऐसा हुआ हो जिसमें छत्रसाल की हार हुई हो। 

जब ये देखते थे कि बैरी की सेना मेरी सेना से अधिक है तो बड़ी चतुराई से अपनी सेना हटा लेते थे। बैरी की सेना की संख्या में इन्हें कभी घबराहट नहीं हुई। जहाँ-जहाँ लड़ते थे वहाँ जो उनकी अधीनता स्वीकार कर लेता था उसे तो छोड़ देते थे, जो अधीनता नहीं स्वीकार करता था, उसकी सारी सम्पत्ति लेकर उसका बहुत अधिक भाग सैनिकों में बाँट देते थे।


छत्रसाल की शक्ति औरंगजेब की सैनिक शक्ति की तुलना में कुछ भी न थी। फिर भी छत्रसाल को वे हरा न सका, इसके तीन कारण थे। पहली बात तो यह थी कि छत्रसाल के लड़ने का ढंग बहुत कौशलपूर्ण ये और इनके भाई सेना का संचालन करते थे। ये पहाड़ी प्रदेशों में लड़ते थे। इन स्थानों की इन्हें विशेष रूप से जानकारी थी। जब अवसर मिलता था वे भाग जाते थे और औरंगजेब की सेना लाख सिर मारने पर

भी इन्हें हानि नहीं पहुंचा सकती थी। तीसरी बात यह थी कि इनके सैनिक बड़े साहसी और वीर थे। इनकी विजय का हाल जो बुन्देला सुनता, इनकी सहायता करने के लिए तैयार हो जाता और सदा सहायता देता।


इन्हीं सब कारणों से यह बात हुई जो कभी सम्भव न थी। और वह यह थी कि बड़े-बड़े सेनापति औरंगजेब की ओर से आये, अनेक स्थानों पर वे छत्रसाल से लड़े, परन्तु कहीं किसी युद्ध में विजय न पा सके। छत्रसाल सदा विजयी रहे।

इनका का राज्य धीरे-धीरे बढ़ता गया और सारा बुन्देलखण्ड इनके राज्य में आ गया। इनके राज्य का प्रबन्ध भी बहुत उत्तम और प्रजा को सुखी बनाने वाला था। कोई व्यक्ति यदि स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार करता तो उसे कठोर दण्ड देते थे। सारा राज-काज उन्हीं की आज्ञा से होता था। महाराज का नियम था कि प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह कितना ही छोटा हो, उनसे मिल सकता था जिनकी विनती और बात ये सुनते रहे होंगे। उनके दरबार में अनेक मन्त्री भी थे जिनसे वे परामर्श किया करते थे। 


एक बार ये छत्रपति महाराज शिवाजी के पास भी गये। वे शिवाजी से अवस्था में छोटे थे। शिवाजी इनसे बहुत प्रेम से मिले और उन्होंने इनका बहुत सम्मान किया। उन्होंने उपदेश दिया कि वीरता से लड़ो, लालच कभी मत करना और अधर्म कभी मत करना। किसी धर्म या जाति से द्वेष न करना। शिवाजी की ये बातें उन्होंने सदा याद रखीं।


शिवाजी के बाद उन्होंने मराठों से सहायता माँगी। सिंहासन पर अब कोई बलशाली राजा नहीं रह गया था और मुगल राज के वंशजों में ही झगड़ा हो रहा था। छत्रसाल को भी इस समय अपने राज्य कीरक्षा के लिए लड़ना पड़ा। छत्रसाल बूढ़े हो चले थे, वीरता और साहस ने इनका साथ न छोड़ा था, फिर भी इस समय इन्हें सहायता की आवश्यकता आ पड़ी। इसलिए उन्होंने पेशवा बाजीराव से सहायता माँगी और उन्होंने सहायता दी।


महाराज छत्रसाल कविता और साहित्य के प्रेमी थे। उनके दरबार में सदा अच्छे-अच्छे कवि रहते थे और सदा उन्हें पुरस्कार मिलता रहता। कवियों का यह कितना सम्मान करते थे, इसका पता एक घटना से लग सकता है। भूषण कविराज शिवाजी के यहाँ रहते थे। वे एक बार छत्रसाल के यहाँ आये। जब वे इनके महल के निकट पहुँचे, छत्रसाल बाहर आये और आगे जाकर भूषण की पालकी में अपना कन्धा भी लगा दिया। ज्यों ही भूषण को पता लगा वे तुरन्त ही कूद पड़े। बोले, महाराज, 'यह आपने क्या किया।'


छत्रसाल ने उत्तर दिया, "आप ऐसे महान कवि का सम्मान शिवाजी महाराज के यहाँ होता है। मैं उनकी समता कैसे कर सकता हूँ। मैं इसी प्रकार आपका सम्मान कर सका।'' शिवाजी की मृत्यु के बाद भूषण छत्रसाल के यहाँ अनेक बार आइनके दरबार में जो कवि रहते थे इनमें लाल कवि भी एक कवि थे जिन्होंने छत्रसाल के सम्बन्ध में एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है- छत्रप्रकाश । छत्रसाल स्वयं कविता करते थे और उनकी अनेक वीरता से भरी रचनाएँ तथा कविताएँ मिलती हैं। विख्यात छतरपुर नगर महाराज छत्रसाल का ही बसाया हुआ है।

यह बात विख्यात है कि शिवाजी के गुरु रामदास थे, जिन्होंने उन्हें बहुत अच्छे-अच्छे उपदेश दिये। शिवाजी को शिवाजी भी उन्होंने बनाया। इसी प्रकार महाराज छत्रसाल के भी गुरु थे। इनका नाम प्राणनाथ था।


बुन्देलखण्ड को शक्तिशाली राज्य बनाकर भी छत्रसाल को शान्ति नये। भूषण ने छत्रसाल की प्रशंसा में भी कविताएँ लिखी हैं।

छत्रसाल की मृत्यु

मिली। दूसरी शक्तियाँ सदा ईर्ष्या की दृष्टि से इनका राज्य देखती रहीं। इसलिए राज्य की रक्षा के लिए इन्हें जीवन भर लड़ना पड़ा। उनकी मृत्यु सन् 1731 ई० में हुई।



Friday, 4 June 2021

Sudha Chandran biography

June 04, 2021 0
Sudha Chandran biography

Sudha Chandran biography

Sudha Chandran is a television actress.  He has played all his characters in a very good way.


Sudha Chandran biography



Full name Sudha Chandran
Born 27 September 1965
Age 55 year
Husband Ravi Dang
First show dance reality 
show (Jhalak 
Dikhhla Jaa) in 2007.
Parents K.D. Chandran
Best show
Award golden petal



Sudha Chandran was born on 27st September 1965.  He was educated at Mithibai College in Mumbai, from where he took BA and MA degree in economics.  He lost his legs in an accident but still he did not give up.  She became one of the most admired dancers of the Indian subcontinent.  After two years, she again prepared herself for dance and she was successful in her work.
 He has done many films in his life and has shown himself in many languages.

 Mayuri in a film in the 1984 Telugu film Mayuri in which she played a key role of herself which was related to her story.  She was awarded the 1986 Special Jury Award at the National Film Awards for her performance in the film Mayuri.
 Sudha Chandran's people also became an inspiration with her talent.

Thursday, 3 June 2021

who is Vinoba Bhave: (Acharya Vinoba Bhave) Biography

June 03, 2021 0
who is Vinoba Bhave: (Acharya Vinoba Bhave) Biography

In this post you know biograpy of vinobha bhave

Acharya Vinoba Bhave

From time to time such people have been born in this country who have given a new direction to the country and society with their special abilities.  One such person was Acharya Vinoba Bhave.  In his personality there was a combination of saint, teacher (teacher) and seeker.


who was Vinoba Bhave mention brief their achievement? (Vinoba bhave biology)

Vinoba bhave was born on 11 September 1865 in Gagoda village of Colaba district of Maharashtra.  As a child, Vinoba ji had a special hobby of traveling.  He used to visit the hills, fields, rivers and other historical places around his village.  During his studies, he used to read text books as well as spiritual books.  At an early age he studied Tukaram Gatha, Dasbodh Brahmasutra, Shankara Bhashya and Gita several times.


who is vinoba bhave

Vinoba ji had knowledge of many languages.  He was also a writer of high order.  His early works are in Marathi language.  He later wrote several books in Hindi, Tamil, Sanskrit and Bengali.

Vinoba had gone to the Sabarmati Ashram on the request of Mahatma Gandhi.  After coming to the ashram, he started farming.  There he worked quietly for several months.  Impressed by his work, Gandhiji called him the first Satyagrahi.

Vinoba bhave (in short)


Born  11 September
  1895 
Born place pen
Full name vinayak narahari
 "vinoba"
Award bharat ratna
Died 15 November
1982 in pavar


People thought he was dumb, but after a few days he started reading Upanishads regularly and also took up the task of teaching Sanskrit in his spare time.  Children from class five to high school used to come to Vinoba ji to study.  Both children and teachers were impressed by his interesting and impressive style.  People impressed by his qualities started calling him Acharya.  There was no trace of laziness in Vinoba ji.  He was determined and a true karma yogi.


What does Vinoba Bhave say about the utility of books?

Vinoba ji was reading a book when a scorpion bit him in his leg.  The pain was unbearable.  His leg turned black from the scorpion's venom.  When the pain increased, he asked for the spinning wheel and concentrated and started spinning the yarn.  He was so engrossed in this work that he knew neither the sting of the scorpion nor the pain.


The teachings of the Gita had a profound effect on Vinoba's life.  In 1632, while in Dhaliya prison, he gave 18 discourses on the Gita, which is today known as 'Gita Pravachan'.  He was always absorbed in contemplation.  Serving the people had become his religion.


After the death of Gandhi ji, Vinoba traveled around the country for about fourteen years and prepared the background of the Bhoodan movement.  He kept on expressing his views about personal and social upliftment in this regard by organizing prayer meetings at various places.  His words were very short, concise and precise.  Vinobaji believed in saying more than saying.  He used to present old things with new harmony in such a way that people naturally get a new direction of life.  Vinoba ji was greatly influenced by the lives of Gandhi, Tilak, Tukaram, Tulsidas, Meera, Ramakrishna and Buddha.


donating land-

At that time Vinoba ji used to visit villages located in every nook and corner of the country to meet the farmers with more land and ask for some part of his land for the landless.  Thus Vinoba ji provided land to many landless people of the country through Bhoodan Yagya.


Sarvodaya Principle-

There are three paths of Vinoba's Sarvodaya principle - Satya, Ahimsa and Aparigraha (renunciation).  He said that truth is the basis of spiritual development.  Non-violence is the basis of social development and Aparigraha is the basis of economic development.  He considered the aim of Sarvodaya to be self-government and self-reliance.


influence of thoughts-

In those days there was a lot of fear of bandits in the valley of Chambal.  Vinoba ji had gone to Kanera village of Chambal valley.  There he addressed the people.  Influenced by his ideas, nineteen bandits of Chambal valley surrendered at once.

Aacharya Vinoba Bhave has expressed his views on many aspects of life.  He used to give discourses in prayer meetings, seminars held everywhere.  His views on important issues are being summarized here -


Equality-

"What is the meaning of equality? Equality, what equality? If there are four loaves in the house and two eaters, how many loaves should be given to each one - two each. If mothers learn such equality, it will be a disaster.  The equality of mathematics is of no use to the daily practice. If one eater is 2 years old and the other is 24 years old, one will die of diarrhea and the other of hunger. Equity means to judge according to merit."


Industry-

There is a heavy atmosphere of laziness in our country.  This laziness has come because of unemployment.  The educated have nothing to do with the industry.  He who eats should do the industry, no matter what kind.  There should be an industry environment in the homes.  We have become poor because of laziness,

 

Devotion-

"There is no pretense of devotion. We should not leave the industry and do false devotion. Remember God in free time. By sinning all day, lying does not lead to prayer."


teach read-

'Let him who comes, teach others, and whoever can learn, he himself should learn.  Cannot depend only on school education.


synergy-

"It is said that a cow and a tiger used to drink water in a spring in the hermitage of sage Vashistha. What does this mean? Not only the tiger's cruelty was destroyed but the cow's cowardice was also destroyed. Meaning thus  Otherwise, the people of the circus also have the power to turn a lion into a cow.


A perfect personality-

Vinoba ji spent his whole life as a seeker.  They were all sages, gurus and revolutionaries.  His personality was so stunning and impressive that no one remained without being influenced by him.  Acharya Vinoba, a light man of wonderful personality, died on 14 November 1682.  But with his thoughts he is always with us, always will be.  In the year 1683, he was posthumously awarded the Bharat Ratna by the Government of India.

Wednesday, 2 June 2021

Tulasidas ka jivan parichay | tulasidas ki jivani

June 02, 2021 1
Tulasidas ka jivan parichay | tulasidas ki jivani

In this post you know about Tulasidas or Tulasidas ka jivan parichay longly and shortly


Tulasidas ka jivan parichay (तुलसीदास की जीवनी)

लगभग चार सौ वर्ष पहले तीर्थ शूकरखेत (आज सोरों, जिला-एटा, उ०प्र०) में संत नरहरिदास का आश्रम था। वे विद्वान उदार और परम भक्त थे। वे अपने आश्रम में लोगों को बड़े भक्ति-भाव से रामकथा सुनाया करते थे। एक दिन जब नरहरिदास कथा सुना रहे थे, उन्होंने देखा भक्तों की भीड़ में एक बालक तन्मयता से कथा सुन रहा है। बालक की ध्यान-मुद्रा और तेजस्विता देख उन्हें उसके महान आत्मा होने की अनुभूति हुई। उनकी यह अनुभूति बाद में सत्य सिद्ध भी हुई। यह बालक कोई और नहीं तुलसीदास थे। जिन्होंने अप्रतिम महाकाव्य रामचरितमानस की रचना की।


Tulasidas ka jivan parichay








Tulasidas ka jivan parichay in short

जन्म
सन् 1532 ई०
जन्म स्थानशूकरखेत (वर्तमान में सोरों,
जिला-एटा, उ०प्र०) 
माता-पिता पिता आत्मा राम दुबे
तथा माता हुलसी देवी
गुरुनरिहरदास
प्रमुख रचनाएँरामचरितमानस,
विनय पत्रिका, कवितावली,
 दोहावली, गीतावली
भाषाअवधि
मृत्युसन् 1623 ई० (वाराणसी)
पत्नीरत्नावली
समय अवधि126 वर्ष



तुलसीदास का जन्म यमुना तट पर स्थित राजापुर (चित्रकूट) में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्मा राम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। तुलसीदास के जन्म स्थान को लेकर विद्वानों में मतभेद है। जन्म के कुछ ही समय बाद इनके सिर से माँ बाप का साया उठ गया। सन्त नरहरिदास ने अपने आश्रम में इन्हें आश्रय दिया। वहीं इन्होंने रामकथा सुनी। पन्द्रह वर्षों तक अनेक ग्रन्थों का अध्ययन करने के पश्चात् तुलसीदास अपने जन्म स्थान राजापुर चले आए। यहीं पर उनका विवाह रत्नावली के साथ हुआ। 


एक दिन जब तुलसी कहीं बाहर गये हुए थे, रत्नावली अपने भाई के साथ मायके (पिता के घर) चली गयीं। घर लौटने पर तुलसी को जब पता चला, वे उल्टे पाँव ससुराल पहुंच गए। तुलसी को देखकर उनके ससुराली जन स्तब्ध रह गए। रत्नावली भी लज्जा और आवेश से भर उठी। उसने धिक्कारते हुए कहा- तुम्हें लाज नहीं आती इस हाड़- माँस के शरीर से इतना लगाव रखते हो। इतना प्रेम ईश्वर से करते तो अब तक न जाने क्या हो जाते। पत्नी की तीखी बातें तुलसी को चुभ गयी। वे तुरन्त यहाँ से लौट पड़े घर-द्वार छोड़कर अनेक जगहों में घूमते रहे फिर साधु वेश धारण कर स्वयं को श्रीराम की भक्ति में समर्पित कर दिया।

काशी में श्री राम की भक्ति में लीन तुलसी को हनुमान के दर्शन हुए। कहा जाता है कि उन्होंने हनुमान से श्रीराम के दर्शन कराने को कहा। हनुमान ने कहा राम के दर्शन चित्रकूट में होंगे तुलसी ने चित्रकूट में राम के दर्शन किए। चित्रकूट से तुलसी अयोध्या आये। यहीं सम्वत् 1631 में उन्होंने रामचरित मानस की रचना प्रारम्भ की। उनकी यह रचना काशी के अस्सी घाट में दो वर्ष सात माह छब्बीस दिनों में सम्बद्धध 1633  में पूरी हुई। जनभाषा में लिखा यह ग्रन्थ -रामचरित मानस, न केवल भारतीय साहित्य का बल्कि विश्व साहित्य का अद्वितीय ग्रन्थ है। इसका अनुबाद अन्य भारतीय भाषाओं के साथ विश्व की अनेक भाषामा

में हुआ है। रामचरित मानस में श्रीराम के चरित्र को वर्णित किया गया है। इसमें जीवन के लगभग सभा पहलुओं का नीतिगत वर्णन है। भाई का भाई से, पत्नी का पति से. पति का पत्नी से, गुरु का शिष्य से,शिष्य का गुरु से, राजा का प्रजा से कैसा व्यवहार होना चाहिए। इसका अति सजीव चित्रण है। राम की रावण पर विजय इस बात का प्रतीक है कि सदैव बुराई पर अच्छाई, असत्य पर सत्य की विजय होती है।

तुलसी ने जीवन में सुख और शान्ति का विस्तार करने के लिए जहाँ न्याय, सत्य और प्राणिमात्र से प्रेन को अनिवार्य माना है वहीं दूसरों की भलाई की प्रवृत्ति को मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म कहा है। उनकी दृष्टि में दूसरों को पीड़ा पहुंचाने से बड़ा कोई पाप नहीं है। उन्होंने लिखा है कि-

परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।

रामचरित मानस के माध्यम से तुलसीदास ने जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है। इसी कारण रामचरित मानस केवल धार्मिक ग्रन्थ न होकर पारिवारिक, सामाजिक एवं नीतिसम्बन्धी व्यवस्थाओं का पोषक ग्रन्थ भी है। तुलसी ने रामचरित मानस के अलावा और भी ग्रन्थों की रचना की है।

जिनमें विनय पत्रिका, कवितावली, दोहावली, गीतावली आदि प्रमुख हैं। तुलसीदास समन्वयवादी थे। उन्हें अन्य धर्मो, मत-मतान्तरों में कोई विरोध नहीं दिखायी पड़ता था।

तुलसीदास जिस समय हुए उस समय मुगल सम्राट अकबर का शासन काल था। अकबर के अनेक दरबारियों से उनका परिचय था। अब्दुर्ररहीम खानखाना से जो स्वयं बहुत बड़े विद्वान तथा कवि थे तुलसीदास की मित्रता थी। उन्होंने तुलसीदास की प्रशंसा में यह दोहा कहा-

सुरतिय, नरतिय, नागतिय, यह चाहत सब कोय।

गोद लिए हुलसी फिर, तुलसी सो सुत होय।।

तुलसीदास अपने अंतिम समय में काशी में गंगा किनारे अस्सीघाट में रहते थे। वहीं इनका देहावसान

सम्बत् 1680 में हुआ। इनकी मृत्यु को लेकर एक दोहा प्रसिद्ध है-

संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर ।

श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।

भक्त, साहित्यकार के रूप में तुलसीदास हिन्दी भाषा के अमूल्य रत्न है।



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