Tulasidas ka jivan parichay | tulasidas ki jivani - जीवन परिचय biography

Wednesday, 2 June 2021

Tulasidas ka jivan parichay | tulasidas ki jivani

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Tulasidas ka jivan parichay (तुलसीदास की जीवनी)

लगभग चार सौ वर्ष पहले तीर्थ शूकरखेत (आज सोरों, जिला-एटा, उ०प्र०) में संत नरहरिदास का आश्रम था। वे विद्वान उदार और परम भक्त थे। वे अपने आश्रम में लोगों को बड़े भक्ति-भाव से रामकथा सुनाया करते थे। एक दिन जब नरहरिदास कथा सुना रहे थे, उन्होंने देखा भक्तों की भीड़ में एक बालक तन्मयता से कथा सुन रहा है। बालक की ध्यान-मुद्रा और तेजस्विता देख उन्हें उसके महान आत्मा होने की अनुभूति हुई। उनकी यह अनुभूति बाद में सत्य सिद्ध भी हुई। यह बालक कोई और नहीं तुलसीदास थे। जिन्होंने अप्रतिम महाकाव्य रामचरितमानस की रचना की।


Tulasidas ka jivan parichay








Tulasidas ka jivan parichay in short

जन्म
सन् 1532 ई०
जन्म स्थानशूकरखेत (वर्तमान में सोरों,
जिला-एटा, उ०प्र०) 
माता-पिता पिता आत्मा राम दुबे
तथा माता हुलसी देवी
गुरुनरिहरदास
प्रमुख रचनाएँरामचरितमानस,
विनय पत्रिका, कवितावली,
 दोहावली, गीतावली
भाषाअवधि
मृत्युसन् 1623 ई० (वाराणसी)
पत्नीरत्नावली
समय अवधि126 वर्ष



तुलसीदास का जन्म यमुना तट पर स्थित राजापुर (चित्रकूट) में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्मा राम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। तुलसीदास के जन्म स्थान को लेकर विद्वानों में मतभेद है। जन्म के कुछ ही समय बाद इनके सिर से माँ बाप का साया उठ गया। सन्त नरहरिदास ने अपने आश्रम में इन्हें आश्रय दिया। वहीं इन्होंने रामकथा सुनी। पन्द्रह वर्षों तक अनेक ग्रन्थों का अध्ययन करने के पश्चात् तुलसीदास अपने जन्म स्थान राजापुर चले आए। यहीं पर उनका विवाह रत्नावली के साथ हुआ। 


एक दिन जब तुलसी कहीं बाहर गये हुए थे, रत्नावली अपने भाई के साथ मायके (पिता के घर) चली गयीं। घर लौटने पर तुलसी को जब पता चला, वे उल्टे पाँव ससुराल पहुंच गए। तुलसी को देखकर उनके ससुराली जन स्तब्ध रह गए। रत्नावली भी लज्जा और आवेश से भर उठी। उसने धिक्कारते हुए कहा- तुम्हें लाज नहीं आती इस हाड़- माँस के शरीर से इतना लगाव रखते हो। इतना प्रेम ईश्वर से करते तो अब तक न जाने क्या हो जाते। पत्नी की तीखी बातें तुलसी को चुभ गयी। वे तुरन्त यहाँ से लौट पड़े घर-द्वार छोड़कर अनेक जगहों में घूमते रहे फिर साधु वेश धारण कर स्वयं को श्रीराम की भक्ति में समर्पित कर दिया।

काशी में श्री राम की भक्ति में लीन तुलसी को हनुमान के दर्शन हुए। कहा जाता है कि उन्होंने हनुमान से श्रीराम के दर्शन कराने को कहा। हनुमान ने कहा राम के दर्शन चित्रकूट में होंगे तुलसी ने चित्रकूट में राम के दर्शन किए। चित्रकूट से तुलसी अयोध्या आये। यहीं सम्वत् 1631 में उन्होंने रामचरित मानस की रचना प्रारम्भ की। उनकी यह रचना काशी के अस्सी घाट में दो वर्ष सात माह छब्बीस दिनों में सम्बद्धध 1633  में पूरी हुई। जनभाषा में लिखा यह ग्रन्थ -रामचरित मानस, न केवल भारतीय साहित्य का बल्कि विश्व साहित्य का अद्वितीय ग्रन्थ है। इसका अनुबाद अन्य भारतीय भाषाओं के साथ विश्व की अनेक भाषामा

में हुआ है। रामचरित मानस में श्रीराम के चरित्र को वर्णित किया गया है। इसमें जीवन के लगभग सभा पहलुओं का नीतिगत वर्णन है। भाई का भाई से, पत्नी का पति से. पति का पत्नी से, गुरु का शिष्य से,शिष्य का गुरु से, राजा का प्रजा से कैसा व्यवहार होना चाहिए। इसका अति सजीव चित्रण है। राम की रावण पर विजय इस बात का प्रतीक है कि सदैव बुराई पर अच्छाई, असत्य पर सत्य की विजय होती है।

तुलसी ने जीवन में सुख और शान्ति का विस्तार करने के लिए जहाँ न्याय, सत्य और प्राणिमात्र से प्रेन को अनिवार्य माना है वहीं दूसरों की भलाई की प्रवृत्ति को मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म कहा है। उनकी दृष्टि में दूसरों को पीड़ा पहुंचाने से बड़ा कोई पाप नहीं है। उन्होंने लिखा है कि-

परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।

रामचरित मानस के माध्यम से तुलसीदास ने जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है। इसी कारण रामचरित मानस केवल धार्मिक ग्रन्थ न होकर पारिवारिक, सामाजिक एवं नीतिसम्बन्धी व्यवस्थाओं का पोषक ग्रन्थ भी है। तुलसी ने रामचरित मानस के अलावा और भी ग्रन्थों की रचना की है।

जिनमें विनय पत्रिका, कवितावली, दोहावली, गीतावली आदि प्रमुख हैं। तुलसीदास समन्वयवादी थे। उन्हें अन्य धर्मो, मत-मतान्तरों में कोई विरोध नहीं दिखायी पड़ता था।

तुलसीदास जिस समय हुए उस समय मुगल सम्राट अकबर का शासन काल था। अकबर के अनेक दरबारियों से उनका परिचय था। अब्दुर्ररहीम खानखाना से जो स्वयं बहुत बड़े विद्वान तथा कवि थे तुलसीदास की मित्रता थी। उन्होंने तुलसीदास की प्रशंसा में यह दोहा कहा-

सुरतिय, नरतिय, नागतिय, यह चाहत सब कोय।

गोद लिए हुलसी फिर, तुलसी सो सुत होय।।

तुलसीदास अपने अंतिम समय में काशी में गंगा किनारे अस्सीघाट में रहते थे। वहीं इनका देहावसान

सम्बत् 1680 में हुआ। इनकी मृत्यु को लेकर एक दोहा प्रसिद्ध है-

संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर ।

श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।

भक्त, साहित्यकार के रूप में तुलसीदास हिन्दी भाषा के अमूल्य रत्न है।



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