स्वामी दयानन्द सरस्वती
जन्म | 12 फरवरी सन् 1824 ई० |
जन्म स्थान | अजमेर, राजस्थान |
गुरु | विरजानंद दंडिश |
पिता | कर्षन त्रिवेदी |
प्रमुख रचनाएं | सत्यार्थ प्रकाश |
मृत्यु | 30 अक्टूबर 1983 |
मूलशंकर (महर्षि दयानन्द) के पिता का नाम कर्षन जी त्रिवेदी और माता का नाम शोभाबाई था। महर्षि दयानन्द के पिता की इच्छा थी कि उनका पुत्र पढ़-लिखकर सद्गृहस्थ बने और जमींदारी तथा लेन-देन में उनकी मदद करे। परन्तु मूलशंकर का मन अध्ययन और एकान्त चिन्तन में लगता था। मूलशंकर की प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत में हुई।
स्वामी दयानन्द ने आडम्बरों का जीवन भर विरोध किया। इस संदर्भ में
उन्होंने एक महान धर्मग्रन्थ 'सत्यार्थ प्रकाश' लिखा। जिसमें धर्म, समाज,
राजनीति, नैतिकता एवं शिक्षा पर उनके संक्षिप्त विचार दिये गये हैं।
स्वामी दयानन्द के दृष्टिकोण एवं जीवन दर्शन को संक्षेप में इस उद्धरण से
समझा जा सकता हैं-
कोई भी सद्गुण सत्य से बड़ा नहीं है। कोई भी पाप झूठ से अधम नहीं है।
कोई ज्ञान भी सत्य से बड़ा नहीं है इसलिए मनुष्य को सदा सत्य का पालन
करना चाहिए।
धर्म के नाम पर मानव समाज का भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में बँटा होना उन्हें ईश्वरीय नियम के प्रतिकूल लगता था। लोगों को उपदेश देते हुए प्रायः कहा करते थे -
परमात्मा के रचे पदार्थ सब प्राणी के लिए एक से हैं। सूर्य और चन्द्रमा सब के लिए समान प्रकाश देते हैं। वायु और जल आदि वस्तुएँ सबको एक सी ही दी गयी हैं। जैसे ये पदार्थ ईश्वर की ओर से सब प्राणियों के लिए एक से हैं और समान रूप से लाभ पहुँचाते हैं वैसे ही परमेश्वर प्रदत्त धर्म भी सब मनुष्यों के लिए एक ही होना चाहिए।
भारतीय समाज को वेद के आदर्शों के अनुरूप लाने एवं भारतीय समाज में
व्याप्त बुराइयों को दूर करने हेतु उन्होंने
1875 में "आर्य समाज" की मुम्बई में स्थापना की। आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य सभी मनुष्यों के शारीरिक, आध्यात्मिक और
सामाजिक स्तर को ऊपर उठाना था।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
प्राचीन संस्कृति और सभ्यता की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। उन्होंने
वेदों और संस्कृत साहित्य के अध्ययन पर बल दिया। तत्कालीन समाज में
महिलाओं की गिरती हुई स्थिति का कारण उन्हें उनका अशिक्षित होना
लगा। फलतः उन्होंने नारी शिक्षा पर विशेष बल दिया।
स्वामी दयानन्द ने पर्दा प्रथा तथा बाल विवाह जैसी कुरीतियों का घोर
विरोध किया। उन्होंने विधवा विवाह और पुनर्विवाह की प्रथा का
समर्थन किया। समाज में व्याप्त वर्ण-भेद, असमानता और छुआ-छूत की भावना का
भी खुलकर विरोध करते हुए कहा -
"जन्म से मनुष्य किसी जाति विशेष का नहीं होता बल्कि कर्म के आधार पर
होता है।"
स्वामी दयानन्द ने हिन्दी भाषा को राज भाषा के रूप में मान्यता दिलाने का
पूरा प्रयास किया। यद्यपि वे संस्कृत के विद्वान थे किन्तु उन्होंने
हिन्दी में पुस्तकें लिखीं। संस्कृत भाषा और धर्म को ऊँचा स्थान दिलाने
के लिए उन्होंने हिन्दी भाषा को प्रतिष्ठित किया।
कोई चाहे कुछ भी करे, देशी राज्य ही सर्वश्रेष्ठ है। विदेशी सरकार सम्पूर्ण रूप से लाभकारी नहीं हो सकती, फिर चाहे वे धार्मिक पूर्वाग्रह और जातीय पक्षपात से मुक्त तथा पैतृक न्याय और दया से अनुप्राणित ही क्यों न हो।
-दयानन्द सरस्वती (सत्यार्थप्रकाश)
स्वामी दयानन्द समाज सुधारक और आर्य संस्कृति के रक्षक थे। मनुष्य मात्र
के कल्याण की कामना करने वाले महर्षि दयानन्द का जीवनदीप
सन् 1883 की कार्तिक अमावस्या को सहसा
बुझ गया किन्तु उस दीपक का प्रकाश उनके कार्यों और विचारों के रूप में आज
भी फैला है।
स्वामी दयानन्द के विषय में रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था-
स्वामी दयानन्द सरस्वती 19 वीं शताब्दी में भारत के पुनर्जागरण के प्रेरक व्यक्ति थे। उन्होंने भारतीय समाज के लिए एक ऐसा मार्ग प्रशस्त किया जिस पर चलकर भारतीय समाज समुन्नत किया जा सकता है।
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